9 अप्रैल 2025
तेलंगाना हाईकोर्ट ने दिलसुखनगर बम धमाके से जुड़े बहुचर्चित मामले
में इंडियन मुजाहिदीन (आईएम) के पांच आतंकियों की मौत की सजा को बरकरार रखते हुए
दोषियों की अपील को खारिज कर दिया है। हाईकोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि ऐसे गंभीर
मामलों में सख्त सजा जरूरी है और ट्रायल कोर्ट का फैसला साक्ष्यों के आधार पर
बिल्कुल उचित है।
यह
फैसला आईएम के सह-संस्थापक यासीन भटकल और उसके चार साथियों की ओर से दायर अपील पर
आया,
जिसमें उन्होंने एनआईए की विशेष अदालत के 2016 के उस फैसले को चुनौती दी थी, जिसमें सभी को
मृत्युदंड दिया गया था। अदालत ने कहा कि दोषियों के खिलाफ पर्याप्त सबूत हैं और वे
किसी भी तरह की राहत के पात्र नहीं हैं।
बता
दें कि फरवरी 2013 में हैदराबाद के दिलसुखनगर इलाके में
हुए दोहरे बम धमाके में 18 लोगों की मौत हो गई थी और 130
से अधिक लोग घायल हुए थे। इस हमले को इंडियन मुजाहिदीन के आतंकियों
ने अंजाम दिया था।
पीठ
ने कहा कि आतंकवाद के मामलों में नरमी दिखाना समाज के लिए खतरा बन सकता है और
दोषियों को उनके अपराध की गंभीरता के अनुसार ही दंड मिलना चाहिए।
हैदराबाद बम धमाका मामला और तेलंगाना हाईकोर्ट का निर्णय
फरवरी
2013
में हैदराबाद के दिलसुखनगर क्षेत्र में हुए दोहरे बम विस्फोटों में 18
लोगों की मृत्यु और 130 से अधिक लोग घायल हुए
थे। जांच में सामने आया कि इस हमले की साजिश आतंकवादी संगठन इंडियन मुजाहिदीन
द्वारा रची गई थी।
इस
मामले में विशेष एनआईए अदालत ने 2016 में यासीन भटकल
सहित पाँच आतंकियों को मृत्युदंड (death penalty) की सजा सुनाई। दोषियों ने इस सजा के विरुद्ध तेलंगाना हाईकोर्ट में अपील
दायर की थी।
हाईकोर्ट का फैसला:
तेलंगाना
हाईकोर्ट की खंडपीठ—न्यायमूर्ति के. लक्ष्मण और न्यायमूर्ति पी. सुधा ने
दोषियों की अपील खारिज करते हुए विशेष अदालत द्वारा दी गई सजा को पूर्णतः उचित
और न्यायसंगत माना।
न्यायालय की प्रमुख टिप्पणियाँ:
- यह अपराध दुर्लभतम मामलों में
दुर्लभ (rarest of rare) श्रेणी
में आता है।
- सजा का उद्देश्य केवल प्रतिशोध
नहीं, बल्कि न्याय, समाज की सुरक्षा और निवारणात्मक प्रभाव
(deterrence) भी है।
- न्यायालय ने यह भी दोहराया कि आतंकवाद
जैसे अपराधों में नरमी समाज के लिए बड़ा खतरा बन सकती है।
कानूनी सिद्धांत:
1. मृत्युदंड
का औचित्य – भारतीय न्यायव्यवस्था में मृत्युदंड
केवल अत्यंत जघन्य अपराधों के लिए दिया जाता है। इस मामले में उच्च स्तर की पूर्व
योजना, निर्दोष नागरिकों की मृत्यु और सामाजिक प्रभाव को
देखते हुए यह सजा उचित पाई गई।
2. "Rarest
of Rare" Doctrine – सुप्रीम कोर्ट द्वारा
Bachan Singh v. State of Punjab (1980) में
प्रतिपादित सिद्धांत के अनुसार, मृत्युदंड तब ही दिया जा
सकता है जब जीवन कारावास अपर्याप्त लगे। यह मामला उसी सिद्धांत पर खरा उतरता है।
3. न्यायिक
समीक्षा की सीमाएँ – जब ट्रायल कोर्ट ने सबूतों
और प्रक्रिया के आधार पर सजा दी हो, तो उच्च न्यायालय उसमें
हस्तक्षेप नहीं करता, जब तक कि कोई गंभीर प्रक्रिया दोष न
हो।
तेलंगाना
हाईकोर्ट का यह निर्णय दर्शाता है कि भारतीय न्यायपालिका आतंकवाद के खिलाफ जीरो
टॉलरेंस नीति अपनाती है। यह फैसला पीड़ितों को न्याय देने के साथ-साथ समाज में
यह संदेश भी देता है कि ऐसे जघन्य अपराधों के खिलाफ कठोर दंड सुनिश्चित किया
जाएगा।
यह
निर्णय न्यायिक संतुलन, कानूनी प्रक्रिया और
राष्ट्रीय सुरक्षा—तीनों के प्रति न्यायपालिका की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।