बदलापुर यौन
उत्पीड़न मामले में आरोपी अक्षय शिंदे की पुलिस हिरासत में मौत और इस पर बांबे हाई
कोर्ट का सख्त रुख भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली और पुलिस व्यवस्था पर कई अहम सवाल
खड़े करता है। इस घटना ने एक बार फिर उस पुरानी बहस को हवा दी है,
जिसमें पुलिस की भूमिका, मानवाधिकारों की
रक्षा, और राज्य की जवाबदेही पर चर्चा होती रही है।
हिरासत में मौत: एक
गंभीर मामला
23 सितंबर 2024
को जब अक्षय शिंदे को तलोजा जेल से पूछताछ के लिए ले जाया जा रहा था,
तब कथित रूप से पुलिस वैन में उसे गोली मार दी गई। यह घटना तब और
गंभीर हो जाती है जब यह पता चलता है कि मृतक पहले से ही पुलिस की गिरफ्त में था और
उस पर अभी दोष सिद्ध नहीं हुआ था। भारत के संविधान और कानून के तहत किसी भी आरोपी
को दोषी साबित होने तक निर्दोष माना जाता है। ऐसे में हिरासत में हुई यह हत्या
न्याय और मानवाधिकार दोनों का सीधा उल्लंघन है।
कोर्ट का
हस्तक्षेप: कानून का पक्ष
बांबे हाई कोर्ट का
यह कहना कि “एक संवैधानिक न्यायालय मूकदर्शक नहीं बन सकता,”
न केवल विधिक दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है, बल्कि
यह भी संकेत देता है कि न्यायपालिका अब पुलिस अत्याचारों पर आंख मूंदे नहीं रह
सकती। कोर्ट ने साफ तौर पर सरकार की निष्क्रियता और एफआईआर दर्ज करने में टालमटोल
को आड़े हाथों लिया और पांच पुलिसकर्मियों पर एफआईआर दर्ज करने व एसआईटी जांच के
निर्देश दिए।
मृतक के माता-पिता
की चुप्पी और कोर्ट की सक्रियता
यह भी एक दुर्लभ
उदाहरण है जब मृतक के माता-पिता स्वयं मामले को आगे नहीं बढ़ाना चाहते थे,
फिर भी कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेकर कार्रवाई की। इससे यह स्पष्ट
होता है कि न्यायालय केवल पक्षकारों के आग्रह पर नहीं, बल्कि
संविधान की रक्षा के लिए भी कार्य करता है। यह निर्णय उन मामलों में नजीर बन सकता
है, जहाँ पीड़ित परिवार डर, दबाव या
निराशा में चुप्पी साध लेते हैं।
पुलिस सुधार और
जवाबदेही की आवश्यकता
यह घटना यह भी
दिखाती है कि पुलिस बल में अब भी जवाबदेही और मानवाधिकार प्रशिक्षण की गंभीर कमी
है। वर्षों से पुलिस सुधारों की बात होती रही है, लेकिन
वास्तविक क्रियान्वयन बहुत सीमित रहा है। अगर ऐसे मामलों में सख्त कार्रवाई नहीं
होती, तो यह न केवल कानून का मखौल है बल्कि आम जनता के न्याय
तंत्र पर विश्वास को भी डगमगाता है।
निष्कर्ष
बदलापुर हिरासत
मृत्यु कांड केवल एक आरोपी की मौत नहीं, बल्कि
पूरे पुलिस सिस्टम, प्रशासनिक रवैये और हमारी न्याय व्यवस्था
की परीक्षा है। बांबे हाई कोर्ट का यह आदेश एक सकारात्मक पहल है, जो बताता है कि न्यायपालिका संविधान और नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए
सजग है। अब यह राज्य सरकार और पुलिस महकमे की जिम्मेदारी है कि वे इस मामले में
पारदर्शिता और निष्पक्षता सुनिश्चित करें ताकि "कानून के शासन" की भावना
वास्तव में जीवित रह सके।