भूमिका
न्यायपालिका
लोकतंत्र का वह स्तंभ है, जिस पर समाज न्याय और
निष्पक्षता की अंतिम आशा रखता है। जब कार्यपालिका और विधायिका की नाकामी सामने आती
है, तो जनता की निगाहें न्यायपालिका की ओर जाती हैं। लेकिन
जब न्यायपालिका स्वयं सवालों के घेरे में आ जाए, विशेषकर
भ्रष्टाचार और जवाबदेही की कमी को लेकर, तब यह लोकतंत्र के
लिए गहरी चिंता का विषय बन जाता है।
हाल ही में दिल्ली
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के घर से बेहिसाब धनराशि की
बरामदगी ने इस बहस को पुनः प्रासंगिक बना दिया है।
न्यायिक जवाबदेही का महत्व
न्यायपालिका को
संविधान द्वारा उच्च दर्जा प्राप्त है। उसका कार्य न केवल कानून की व्याख्या करना
है,
बल्कि संविधान की मूल भावना की रक्षा करना भी है। लेकिन किसी भी
लोकतांत्रिक व्यवस्था में बिना जवाबदेही के स्वतंत्रता खतरनाक हो सकती है।
न्यायिक जवाबदेही
का तात्पर्य है—न्यायाधीश अपने आचरण, निर्णयों
और पद का उपयोग कैसे करते हैं, इसके लिए वे नैतिक, विधिक एवं सार्वजनिक रूप से उत्तरदायी हों।
भारत में
न्यायपालिका की संरक्षित स्थिति
भारतीय संविधान के
अनुच्छेद 124(4) के तहत सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश
को केवल महाभियोग द्वारा ही हटाया जा सकता है। यह प्रक्रिया इतनी जटिल और
दीर्घकालिक है कि अब तक किसी भी जज को इससे नहीं हटाया जा सका है।
इसके अलावा,
न्यायपालिका ने इन-हाउस जांच प्रक्रिया बनाई है, जिसमें न्यायमूर्ति की शिकायत की आंतरिक जांच होती है, लेकिन यह प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है और इसकी रिपोर्ट सार्वजनिक
नहीं होती।
भ्रष्टाचार की जांच में मुख्य बाधाएं
1. प्रतिरक्षा
और विशेषाधिकार – न्यायाधीशों को दिए गए
विशेष अधिकारों के कारण उनके विरुद्ध जांच प्रारंभ करना ही अत्यंत कठिन होता है।
2. महाभियोग
की कठिन प्रक्रिया – संसद में दो-तिहाई बहुमत
से प्रस्ताव पारित करना होता है, जो राजनीतिक और व्यावहारिक
रूप से चुनौतीपूर्ण है।
3. इन-हाउस
जांच की गोपनीयता – शिकायतकर्ता को जांच की
स्थिति और निष्कर्षों की जानकारी नहीं मिलती, जिससे
पारदर्शिता का अभाव होता है।
4. कॉलेजियम
प्रणाली में पारदर्शिता की कमी – उच्च
न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया पूरी तरह न्यायपालिका
के हाथ में है और इसमें कोई बाहरी निगरानी नहीं होती।
5. स्वतंत्र
निगरानी निकाय का अभाव – जजों की कार्यप्रणाली पर
निगरानी रखने के लिए कोई स्वतंत्र संस्था नहीं है, जैसा कि
अन्य लोकतांत्रिक देशों में होता है।
महत्वपूर्ण उदाहरण
- न्यायमूर्ति वी. रमास्वामी (1993):
सुप्रीम कोर्ट के जज पर वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगे,
परंतु महाभियोग प्रस्ताव लोकसभा में पास नहीं हो पाया।
- न्यायमूर्ति सौमित्र सेन (2011):
कलकत्ता उच्च न्यायालय के जज पर आरोप सिद्ध होने के बावजूद,
उन्होंने इस्तीफा दे दिया और जांच अधूरी रह गई।
- न्यायमूर्ति पी.डी. दिनाकरन:
उन पर संपत्ति संबंधी गंभीर आरोप लगे, लेकिन
लंबी जांच प्रक्रिया के दौरान उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
अन्य देशों की व्यवस्था
- अमेरिका:
वहां जजों पर जवाबदेही के लिए न्यायिक आचार समिति और सार्वजनिक
सुनवाई की व्यवस्था है।
- यूके:
न्यायिक आचरण की स्वतंत्र जांच और संसद को रिपोर्टिंग अनिवार्य
है।
- कनाडा:
‘Canadian Judicial Council’ जैसी संस्थाएं जजों के आचरण पर
निगरानी रखती हैं।
भारत में ऐसी
संस्थागत निगरानी प्रणाली का अभाव स्पष्ट है।
समाधान और सुझाव
1. न्यायिक
जवाबदेही विधेयक को पुनः लाना: यह विधेयक
2010 में संसद में लाया गया था, परंतु
पारित नहीं हो सका। इसे संशोधित रूप में पुनः प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
2. इन-हाउस
जांच की पारदर्शिता बढ़ाना: रिपोर्ट सार्वजनिक की
जाए और शिकायतकर्ता को जांच की स्थिति की जानकारी मिले।
3. स्वतंत्र
निगरानी संस्था: एक न्यायिक लोकपाल जैसी
संस्था हो जो जजों पर निगरानी रखे और शिकायतों का निपटारा करे।
4. कॉलेजियम
में सुधार: न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया में पारदर्शिता
और बाहरी निगरानी की व्यवस्था हो।
5. नैतिक
संहिता और संपत्ति की घोषणा: हर न्यायाधीश को अपनी
संपत्ति सालाना घोषित करनी चाहिए और उसे सार्वजनिक पोर्टल पर डाला जाना चाहिए।
निष्कर्ष
न्यायपालिका का
सम्मान तभी बना रह सकता है जब वह न केवल निष्पक्ष हो,
बल्कि निष्पक्ष दिखाई भी दे।
लोकतंत्र की रक्षा करने वाली संस्था को यदि खुद ही जवाबदेही से बचाया जाए,
तो वह जनता के भरोसे को कमजोर करती है।
भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए, संविधान के दायरे में रहकर एक जवाबदेह, पारदर्शी और
जनोन्मुखी न्याय व्यवस्था स्थापित करना आज समय की मांग
है।