भारतीय लोकतंत्र
में न्यायिक समीक्षा: सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले और उनका प्रभाव।
न्यायिक
समीक्षा भारतीय संवैधानिक कानून में एक मौलिक अवधारणा है जो न्यायपालिका को
कानूनों, कार्यकारी कार्यों और सरकारी नीतियों की संवैधानिकता की
समीक्षा और जांच करने की अनुमति देती है। यह सरकार की अन्य शाखाओं के कार्यों पर
एक महत्वपूर्ण जांच के रूप में कार्य करता है,
यह सुनिश्चित करता है कि
वे संविधान के अनुरूप हैं। न्यायिक समीक्षा की शक्ति भारतीय संविधान में निहित है, विशेष
रूप से अनुच्छेद 13, 32 और 226 में।
संविधान को कायम रखने में न्यायपालिका की भूमिका
✅मौलिक अधिकारों की सुरक्षा: न्यायपालिका मौलिक अधिकारों की सुरक्षा में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाती है। यह सुनिश्चित करती है कि कानून और सरकारी कार्य नागरिकों के
अधिकारों और स्वतंत्रता का उल्लंघन न करें। न्यायपालिका ने अक्सर मौलिक अधिकारों
का उल्लंघन करने वाले कानूनों और कार्यों को रद्द कर दिया है।
✅मूल ढांचे की रक्षा करना: केशवानंद भारती मामले में स्थापित मूल ढांचे का
सिद्धांत न्यायिक समीक्षा का एक प्रमुख तत्व है। यह न्यायपालिका को संविधान की मूल
विशेषताओं की रक्षा करने का अधिकार देता है,
यह सुनिश्चित करता है कि
उनमें संशोधन या उल्लंघन न हो।
✅विधान की समीक्षा: न्यायपालिका कानूनों और नीतियों की संवैधानिकता की
समीक्षा करती है। यदि वह उन्हें संविधान के साथ असंगत पाता है, तो
वह उन्हें अमान्य घोषित कर सकता है। इस शक्ति का उपयोग अक्सर यह सुनिश्चित करने के
लिए किया जाता है कि कानून संविधान के सिद्धांतों और मूल्यों का पालन करते हैं।
✅कानून के शासन को बनाए रखना: न्यायपालिका यह सुनिश्चित करती है कि सरकार कानून और
संविधान के दायरे में काम करे। यह सरकार को जवाबदेह बनाती है और सत्ता के मनमाने
प्रयोग को रोकती है।
न्यायिक समीक्षा की शक्ति को दर्शाने वाले ऐतिहासिक मामलों के उदाहरण
🔷केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): इस ऐतिहासिक मामले में, सर्वोच्च
न्यायालय ने "मूल संरचना" के सिद्धांत को स्थापित किया। इसने
माना कि संविधान में संशोधन किया जा सकता है,
लेकिन कुछ मुख्य विशेषताएं
और मूल्य संशोधन से मुक्त हैं। इस मामले ने संविधान के मूल सिद्धांतों की रक्षा
में न्यायपालिका की भूमिका को मजबूत किया।
🔷मिनर्वा मिल्स लिमिटेड बनाम भारत संघ (1980): इस मामले में,
सुप्रीम कोर्ट ने 42वें
संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31-सी और 368 में किए गए संशोधनों की समीक्षा की।
न्यायालय ने फैसला सुनाया कि ये संशोधन मूल ढांचे का उल्लंघन करते हैं और संविधान
के संरक्षक के रूप में न्यायिक समीक्षा के सिद्धांत को बरकरार रखा।
🔷मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978): इस मामले ने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत
"व्यक्तिगत स्वतंत्रता" के दायरे का विस्तार किया और इस बात पर
जोर दिया कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन करने वाले किसी भी कानून या कार्रवाई
को तर्कसंगतता की कसौटी पर खरा उतरना होगा।
🔷विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997): इस मामले में, सर्वोच्च
न्यायालय ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से निपटने के लिए दिशा-निर्देश
निर्धारित किए। इसने कार्यस्थल पर महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने
के लिए न्यायिक समीक्षा की अपनी शक्ति का इस्तेमाल किया।
🔷नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018): इस मामले ने सहमति से समलैंगिक कृत्यों को
अपराध से मुक्त कर दिया, प्रभावी रूप से औपनिवेशिक युग के कानून (भारतीय
दंड संहिता की धारा 377) को पलट दिया। अदालत ने माना कि कानून समानता और
व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है।
🔷भारतीय न्यायपालिका की निर्णायक भूमिका
भारत
में न्यायिक समीक्षा लोकतंत्र
की रीढ़ है, जो यह सुनिश्चित करती है कि सरकार का हर निर्णय संविधान
के अनुरूप हो। न्यायपालिका ने अपने फैसलों के माध्यम से संविधान की मूल संरचना को
बनाए रखने, मौलिक अधिकारों की रक्षा करने और लोकतांत्रिक मूल्यों को
मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
🔶 न्यायिक समीक्षा: संवैधानिकता की रक्षा का एक अनिवार्य औजार
✅
संविधान सर्वोच्च है – न्यायिक
समीक्षा यह सुनिश्चित करती है कि कोई भी कानून या सरकारी नीति संविधान के बुनियादी
सिद्धांतों के विरुद्ध न हो।
✅
मौलिक अधिकारों की रक्षा – यदि
सरकार या विधायिका द्वारा पारित कोई कानून नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन करता
है, तो न्यायपालिका उस कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती
है।
✅
लोकतंत्र की स्थिरता – यह
न्यायपालिका को सरकार के कार्यों को संतुलित करने का अधिकार देती है, जिससे
सत्ता का दुरुपयोग रोका जा सके।
✅
न्याय और स्वतंत्रता की
सुरक्षा – नागरिकों के जीवन,
स्वतंत्रता और गरिमा को
बनाए रखने में यह एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
🔷 भारतीय न्यायपालिका द्वारा ऐतिहासिक निर्णय और उनका प्रभाव
भारतीय
उच्चतम न्यायालय ने कई ऐतिहासिक फैसलों के माध्यम से न्यायिक समीक्षा की शक्ति को
न केवल स्वीकार किया, बल्कि इसे संविधान की रक्षा के लिए एक
आवश्यक उपकरण के रूप में स्थापित किया।
🔹
केशवानंद भारती बनाम केरल
राज्य (1973)
- इस मामले में
"मूल संरचना सिद्धांत" स्थापित किया गया, जिसने यह स्पष्ट किया कि संविधान के
कुछ मूलभूत तत्वों को बदला नहीं जा सकता।
- इस फैसले ने
यह सुनिश्चित किया कि कोई भी सरकार संविधान के मूल ढांचे को कमजोर नहीं कर
सकती।
🔹
मिनर्वा मिल्स बनाम भारत
संघ (1980)
- इस फैसले में
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि संविधान में संशोधन करने की शक्ति असीमित
नहीं हो सकती।
- यह निर्णय
भारत में संवैधानिक संतुलन बनाए रखने में एक महत्वपूर्ण कदम था।
🔹
मेनका गांधी बनाम भारत संघ
(1978)
- इस फैसले ने
अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के
अधिकार) का व्यापक विस्तार किया।
- न्यायपालिका
ने यह सिद्ध किया कि किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता को मनमाने ढंग से छीना
नहीं जा सकता और इसके लिए
प्राकृतिक न्याय के
सिद्धांतों का पालन अनिवार्य होगा।
🔹
विशाखा बनाम राजस्थान
राज्य (1997)
- इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यस्थल पर यौन
उत्पीड़न से निपटने के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित किए।
- इस फैसले ने
कार्यस्थल पर महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित की।
🔹
नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत
संघ (2018)
- सुप्रीम कोर्ट
ने धारा 377
को आंशिक रूप से
असंवैधानिक घोषित करते हुए समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया।
- यह फैसला व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समानता की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम था।
🔹
आधार मामला (न्यायमूर्ति
के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ,
2018)
- इस फैसले में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित किया गया।
- सुप्रीम कोर्ट
ने सरकार को यह निर्देश दिया कि आधार का उपयोग नागरिकों की स्वतंत्रता का
उल्लंघन करने के लिए नहीं किया जा सकता।
🔶 न्यायिक
समीक्षा का भविष्य और संभावनाएं
🔸
बदलते सामाजिक और तकनीकी
परिवर्तनों के कारण भविष्य में न्यायिक समीक्षा की भूमिका और भी महत्वपूर्ण होगी।
🔸
सरकार की नीतियों और डिजिटल
युग में नागरिकों की स्वतंत्रता
की रक्षा के लिए
न्यायपालिका को सतर्क रहना होगा।
🔸
जलवायु परिवर्तन, डेटा
सुरक्षा, डिजिटल स्वतंत्रता और मानवाधिकारों जैसे
नए विषयों पर न्यायिक समीक्षा की आवश्यकता बढ़ेगी।
🔷 निष्कर्ष
भारतीय
न्यायपालिका केवल कानूनों की व्याख्या करने वाली संस्था नहीं है, बल्कि
यह संविधान की आत्मा की संरक्षक भी है।
न्यायिक समीक्षा के माध्यम
से यह सुनिश्चित किया जाता है कि न केवल नागरिकों के अधिकारों की रक्षा हो, बल्कि
लोकतंत्र भी सशक्त बना रहे।
✅
केशवानंद भारती, मिनर्वा
मिल्स, मेनका गांधी जैसे
ऐतिहासिक फैसलों ने यह साबित किया कि न्यायपालिका संविधान की संरक्षक है और
लोकतंत्र के तीन स्तंभों (विधायिका,
कार्यपालिका और
न्यायपालिका) के बीच शक्ति संतुलन बनाए रखने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है।
✅
न्यायिक समीक्षा न केवल भारतीय
लोकतंत्र की स्थिरता की गारंटी देती है, बल्कि
प्रत्येक नागरिक के मौलिक अधिकारों की रक्षा भी
सुनिश्चित करती है।
"संविधान केवल एक दस्तावेज नहीं, बल्कि
लोकतंत्र की आत्मा है। न्यायिक समीक्षा इसे जीवंत और सशक्त बनाए रखती है।"
🔷 अक्सर पूछे
जाने वाले प्रश्न (FAQs) – भारत में न्यायिक समीक्षा
1.
न्यायिक समीक्षा क्या है, और
यह भारतीय संविधान में किन अनुच्छेदों के तहत निहित है?
🔹
उत्तर:
न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) वह प्रक्रिया है जिसके तहत न्यायपालिका कानूनों, सरकारी
नीतियों और कार्यकारी आदेशों की संवैधानिकता की जांच करती है। यदि कोई कानून या
नीति संविधान के विरुद्ध पाई जाती है,
तो न्यायपालिका उसे
असंवैधानिक घोषित कर सकती है।
🔹
संवैधानिक आधार:
✅ अनुच्छेद
13 – किसी
भी असंवैधानिक कानून को शून्य घोषित करने की शक्ति।
✅ अनुच्छेद
32 – सर्वोच्च
न्यायालय को मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए रिट जारी करने का अधिकार।
✅ अनुच्छेद
226 – उच्च
न्यायालयों को सरकारी आदेशों और नीतियों की संवैधानिकता की समीक्षा करने का
अधिकार।
2.
भारत में न्यायिक समीक्षा
की आवश्यकता क्यों है?
🔹
उत्तर:
भारत में न्यायिक समीक्षा
की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से है:
✅
संविधान की सर्वोच्चता
बनाए रखना: कोई भी कानून संविधान के मूल ढांचे के
विरुद्ध नहीं हो सकता।
✅ मौलिक
अधिकारों की रक्षा: सरकार द्वारा बनाए गए किसी भी कानून से
नागरिकों के मौलिक अधिकारों को आघात नहीं पहुंचना चाहिए।
✅ लोकतंत्र
की स्थिरता: यह विधायिका और कार्यपालिका के मनमाने
कार्यों पर अंकुश लगाता है।
✅ सत्ता
के संतुलन को बनाए रखना:
इससे तीनों अंगों
(विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) के बीच शक्ति संतुलन
सुनिश्चित होता है।
✅ संविधान
संशोधन की वैधता की जांच:
न्यायिक समीक्षा यह तय
करती है कि संविधान में किए गए संशोधन उसके मूल ढांचे का उल्लंघन न करें।
3.
न्यायिक समीक्षा की प्रमुख
विशेषताएँ क्या हैं?
🔹
उत्तर:
✅ संविधान
के अनुरूपता की जाँच – यह सुनिश्चित करना कि कोई भी कानून या
सरकारी आदेश संविधान के खिलाफ न हो।
✅ स्वतंत्र
न्यायपालिका का दायित्व – यह शक्ति केवल न्यायपालिका के पास होती है, जो
इसे निष्पक्षता से लागू करती है।
✅ संवैधानिक
मूल्यों की रक्षा – यह लोकतंत्र,
मौलिक अधिकारों और कानून
के शासन की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।
✅ मूल
संरचना सिद्धांत पर आधारित – न्यायिक समीक्षा यह तय करती है कि कोई भी
संशोधन संविधान की मूल संरचना को प्रभावित न करे।
4.
न्यायिक समीक्षा का सबसे
महत्वपूर्ण ऐतिहासिक मामला कौन सा है,
और उसका क्या प्रभाव पड़ा?
🔹
उत्तर:
✅ केशवानंद
भारती बनाम केरल राज्य (1973)
- इस मामले में "मूल संरचना सिद्धांत" की स्थापना हुई, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि
संविधान में संशोधन किया जा सकता है,
लेकिन उसकी मूल
संरचना (Basic Structure) को बदला नहीं जा सकता।
- इस फैसले ने
न्यायपालिका को यह अधिकार दिया कि वह किसी भी संवैधानिक संशोधन की समीक्षा कर
सके और यह सुनिश्चित करे कि वह संविधान के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन न करे।
📌
महत्व: इस
निर्णय ने न्यायिक समीक्षा की शक्ति को और अधिक मजबूत कर दिया और संविधान को
निरंकुश संशोधनों से बचाया।
5.
क्या न्यायिक समीक्षा के
कारण कोई बड़ा कानून निरस्त किया गया है?
🔹
उत्तर:
हां, भारतीय
न्यायपालिका ने न्यायिक समीक्षा के माध्यम से कई कानूनों को असंवैधानिक घोषित किया
है। कुछ प्रमुख उदाहरण:
🔹
मिनर्वा मिल्स बनाम भारत
संघ (1980)
✅ इस
फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने
संविधान के 42वें
संशोधन की कुछ धाराओं को असंवैधानिक घोषित किया, क्योंकि
वे संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध थीं।
🔹
नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत
संघ (2018)
✅ इस
मामले में सुप्रीम कोर्ट ने
भारतीय दंड संहिता की धारा
377 को
आंशिक रूप से असंवैधानिक घोषित कर दिया,
जिससे समलैंगिकता को अपराध
की श्रेणी से हटा दिया गया।
🔹
आधार मामला (2018) – के.एस.
पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ
✅ इस
फैसले में निजता के अधिकार (Right
to Privacy) को मौलिक अधिकार घोषित किया गया और आधार कार्ड की
अनिवार्यता पर कई महत्वपूर्ण प्रतिबंध लगाए गए।
6.
न्यायिक समीक्षा और
न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism)
में क्या अंतर है?
🔹
उत्तर:
✅
न्यायिक समीक्षा (Judicial Review)
- न्यायपालिका
केवल यह जांचती है कि कोई कानून या सरकारी आदेश संविधान के अनुरूप है या
नहीं।
- यह शक्ति
न्यायपालिका को संविधान से ही प्राप्त होती है (अनुच्छेद 13, 32, 226)।
- उदाहरण: केशवानंद भारती केस (1973), जिसमें संविधान के मूल ढांचे की रक्षा
की गई।
✅
न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism)
- इसमें
न्यायपालिका जनहित याचिकाओं (PIL)
के माध्यम से
कार्यपालिका और विधायिका के कार्यों में हस्तक्षेप करती है।
- इसमें
न्यायपालिका उन मामलों में भी निर्णय लेती है,
जिन पर स्पष्ट कानून
नहीं होते।
- उदाहरण: विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997), जिसमें कार्यस्थल पर महिलाओं की
सुरक्षा के लिए दिशा-निर्देश बनाए गए।
📌
संक्षेप में:
🔹 न्यायिक
समीक्षा का दायरा सीमित होता है और यह केवल संवैधानिकता की जांच करता है।
🔹 न्यायिक
सक्रियता में न्यायपालिका कानून बनाने जैसा कार्य भी कर सकती है, जब
मौजूदा कानून पर्याप्त न हों।
7.
क्या न्यायिक समीक्षा सभी
देशों में लागू होती है?
🔹
उत्तर:
नहीं, न्यायिक
समीक्षा की अवधारणा सभी देशों में लागू नहीं होती। कुछ देशों में न्यायपालिका को
यह शक्ति नहीं दी गई है।
✅
जहाँ न्यायिक समीक्षा लागू
है:
📌 भारत –
अनुच्छेद 13, 32 और
226 के तहत न्यायिक समीक्षा की व्यवस्था।
📌 संयुक्त
राज्य अमेरिका – Marbury v. Madison
(1803) केस में न्यायिक समीक्षा
की अवधारणा लागू हुई।
📌 जर्मनी, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया – न्यायिक
समीक्षा की व्यवस्था लागू।
❌
जहाँ न्यायिक समीक्षा लागू
नहीं है:
📌 यूनाइटेड
किंगडम – यहाँ "संसदीय संप्रभुता" का सिद्धांत लागू है, इसलिए
न्यायपालिका संसद के किसी भी कानून को निरस्त नहीं कर सकती।
📌 चीन – यहाँ
न्यायपालिका को स्वतंत्र रूप से संवैधानिक समीक्षा करने की शक्ति नहीं दी गई है।
8.
न्यायिक समीक्षा के भविष्य
की क्या संभावनाएँ हैं?
🔹
उत्तर:
✅ डिजिटल
युग में डेटा संरक्षण और निजता के अधिकार से
जुड़े नए संवैधानिक मुद्दे सामने आ रहे हैं,
जिन पर न्यायिक समीक्षा की
भूमिका और बढ़ेगी।
✅ जलवायु
परिवर्तन और पर्यावरण संरक्षण
से जुड़े कानूनों की
संवैधानिक वैधता की जाँच के लिए न्यायिक समीक्षा का उपयोग बढ़ेगा।
✅ भविष्य
में न्यायपालिका आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और साइबर कानूनों के
कानूनी दायरे की समीक्षा कर सकती है।
🔷 विशेष
"न्यायिक
समीक्षा भारत में संविधान और लोकतंत्र की रक्षा करने का एक शक्तिशाली उपकरण है। यह
न्यायपालिका को विधायिका और कार्यपालिका के मनमाने निर्णयों को रोकने की शक्ति
देता है।"
"संविधान केवल एक दस्तावेज नहीं, बल्कि
लोकतंत्र की आत्मा है। न्यायिक समीक्षा इसे जीवंत और सशक्त बनाए रखती है।"