संवैधानिक संघवाद: भारत में केंद्र-राज्य संबंध और आपातकालीन प्रावधानों की भूमिका. Constitutional Federalism: Centre-State Relations in India and the Role of Emergency Provisions

 

Constitutional Federalism: Centre-State Relations in India and the Role of Emergency Provisions


संवैधानिक संघवाद: भारत में केंद्र-राज्य संबंध और आपातकालीन प्रावधानों की भूमिका

 

भारत में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का वितरण भारतीय संविधान की एक महत्वपूर्ण विशेषता है और इसे सातवीं अनुसूची में रेखांकित किया गया है। यह विधायी विषयों को तीन सूचियों में वर्गीकृत करता है: संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची। ये सूचियाँ उन क्षेत्रों को रेखांकित करती हैं जिन पर केंद्र और राज्य सरकारों के पास विधायी अधिकार हैं। शक्तियों के वितरण का अवलोकन इस प्रकार है:

     

    🔷 संघ सूची (सूची I) – भारत में केंद्र सरकार की विधायी शक्तियाँ

     

    भारतीय संविधान ने संघीय व्यवस्था को अपनाया है, जहाँ केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का स्पष्ट वितरण किया गया है। संविधान की सातवीं अनुसूची के अंतर्गत संघ सूची (सूची I) उन विषयों की सूची है, जिन पर केवल संसद (केंद्र सरकार) को कानून बनाने का अधिकार है।

     

    🔶 संघ सूची क्या है?

     

    संघ सूची में वे विषय आते हैं जो पूरे देश के लिए समान रूप से लागू होने चाहिए।
    इसमें 97 विषय शामिल थे, लेकिन बाद में संशोधनों के बाद इनकी संख्या 100 हो गई।
    राज्य सरकारें इन विषयों पर कानून नहीं बना सकतीं, केवल संसद को यह अधिकार है।

    📌 संविधान के अनुच्छेद 246(1) के अनुसार, संसद को संघ सूची के सभी विषयों पर अधिकार है।

     

    🔷 संघ सूची के महत्वपूर्ण विषय

     

    🔹 रक्षा (Defence): सेना, नौसेना, वायुसेना और युद्ध से संबंधित सभी विषय।
    🔹 विदेश मामले (Foreign Affairs): अंतरराष्ट्रीय संधियाँ, राजनयिक संबंध और संयुक्त राष्ट्र से संबंधित विषय।
    🔹 परमाणु ऊर्जा (Atomic Energy): परमाणु शक्ति और रेडियोधर्मी पदार्थों का नियंत्रण।
    🔹 रेलवे (Railways): रेलवे निर्माण, संचालन और नियंत्रण।
    🔹 डाक और टेलीग्राफ (Posts & Telegraphs): डाक सेवाएँ, टेलीफोन, इंटरनेट और संचार माध्यम।
    🔹 मुद्रा (Currency & Coinage): भारतीय मुद्रा और रिज़र्व बैंक का नियंत्रण।
    🔹 नागरिकता और प्रव्रजन (Citizenship & Immigration): नागरिकता, प्रवास और निर्वासन के नियम।
    🔹 वाणिज्य और व्यापार (Commerce & Trade): राज्यों के बीच व्यापार और विदेशी व्यापार।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 State of West Bengal v. Union of India (1963): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संघ सूची के विषयों पर संसद का पूर्ण अधिकार है, और राज्य इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकते।

     

    🔶 संघ सूची और राज्यों की भूमिका
     

    संघ सूची में राज्यों की कोई भूमिका नहीं होती, लेकिन आपातकाल (अनुच्छेद 352) के दौरान केंद्र को राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बनाने की शक्ति मिल जाती है।
    संविधान के अनुच्छेद 249 के तहत, यदि राज्यसभा दो-तिहाई बहुमत से यह प्रस्ताव पारित कर दे कि राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बनाना राष्ट्रीय हित में है, तो संसद उस पर कानून बना सकती है।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 Union of India v. H.S. Dhillon (1972): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि कोई विषय तीनों सूचियों में नहीं आता, तो वह केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में रहेगा।

     

    🔷 विशेष तथ्य

     

    संघ सूची केंद्र सरकार को संप्रभुता, राष्ट्रीय सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय मामलों में पूर्ण अधिकार देती है।
    संविधान में शक्ति संतुलन बना रहे, इसके लिए केंद्र और राज्यों की शक्तियों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है।
    संघीय ढांचे की रक्षा के लिए संसद को केवल उन्हीं विषयों पर कानून बनाने चाहिए, जो संविधान द्वारा निर्दिष्ट किए गए हैं।

    📌 "संघ सूची भारत की अखंडता, संप्रभुता और राष्ट्रीय नीति को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। यह सुनिश्चित करती है कि महत्वपूर्ण राष्ट्रीय विषयों पर एक समान कानून हो और पूरे देश में एकरूपता बनी रहे।"

     

    🔷 राज्य सूची (सूची II) – राज्यों की विधायी शक्तियाँ

     

    भारतीय संविधान ने संघीय ढाँचे को अपनाते हुए राज्य सरकारों को विशिष्ट शक्तियाँ प्रदान की हैं। संविधान की सातवीं अनुसूची में उल्लिखित राज्य सूची (सूची II) उन विषयों की सूची है, जिन पर केवल राज्य सरकारें कानून बना सकती हैं।

     

    🔶 राज्य सूची क्या है?

     

    राज्य सूची में वे विषय आते हैं जो राज्य के क्षेत्रीय प्रशासन और लोकहित से जुड़े होते हैं।
    संविधान के अनुच्छेद 246(3) के अनुसार, राज्य सरकारें इन विषयों पर स्वतंत्र रूप से कानून बना सकती हैं।
    संघीय संरचना को बनाए रखने के लिए केंद्र सरकार को इन विषयों में सीधे हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होता।

    📌 संविधान में शुरुआत में राज्य सूची में 66 विषय थे, लेकिन अब यह संख्या 61 रह गई है।

     

    🔷 राज्य सूची के महत्वपूर्ण विषय

    🔹 पुलिस और कानून-व्यवस्था (Police & Public Order): राज्यों में कानून-व्यवस्था और अपराध नियंत्रण।
    🔹 स्वास्थ्य और अस्पताल (Health & Hospitals): राज्य स्तर पर स्वास्थ्य सेवाएँ और अस्पतालों का संचालन।
    🔹 कृषि (Agriculture): कृषि उत्पादन, सिंचाई, भू-संरक्षण और पशुपालन।
    🔹 भूमि और राजस्व (Land & Revenue): भूमि सुधार, भू-अधिग्रहण और संपत्ति कर।
    🔹 शिक्षा (Education – प्राथमिक और माध्यमिक स्तर): प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के नियम व नीतियाँ।
    🔹 जल आपूर्ति और सिंचाई (Water & Irrigation): नहरें, जलाशय और जल वितरण।
    🔹 बाजार और व्यापार (Markets & Trade): राज्य के भीतर व्यापार, मेले और दुकानों का विनियमन।
    🔹 जुआ और सट्टेबाजी (Gambling & Betting): राज्य के भीतर सट्टा, जुआ और लॉटरी से संबंधित कानून।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 State of Rajasthan v. Union of India (1977): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकारें राज्य सूची के विषयों पर पूरी तरह स्वतंत्र हैं, जब तक कि संविधान में अन्यथा न कहा गया हो।

     

    🔶 राज्य सूची और केंद्र सरकार की भूमिका

     

    सामान्य परिस्थितियों में, केंद्र सरकार राज्य सूची के विषयों पर कानून नहीं बना सकती।
    हालाँकि, तीन विशेष परिस्थितियों में केंद्र को राज्य सूची में हस्तक्षेप का अधिकार मिल सकता है:

    1.  आपातकाल (अनुच्छेद 352): जब राष्ट्रीय आपातकाल लागू हो, तो संसद राज्य सूची के विषयों पर कानून बना सकती है।

    2.  राज्यसभा का प्रस्ताव (अनुच्छेद 249): यदि राज्यसभा दो-तिहाई बहुमत से यह तय करे कि किसी राज्य सूची के विषय पर संसद को कानून बनाना चाहिए, तो केंद्र सरकार उस पर कानून बना सकती है।

    3.  दो या अधिक राज्यों की सहमति (अनुच्छेद 252): यदि दो या अधिक राज्य चाहें कि केंद्र सरकार उनके लिए कोई विशेष कानून बनाए, तो संसद उस विषय पर कानून बना सकती है।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 M.P. Sharma v. Satish Chandra (1954): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य सूची में दिए गए विषयों पर कानून बनाना पूरी तरह से राज्य सरकारों का अधिकार है, जब तक कि संविधान में कोई संशोधन न हो।

     

    🔷 विशेष तथ्य

    राज्य सूची भारतीय संविधान के संघीय ढाँचे की एक महत्वपूर्ण विशेषता है, जो राज्यों को स्वायत्तता प्रदान करती है।
    इस सूची के तहत राज्यों को अपने क्षेत्र में नीति निर्धारण की शक्ति दी गई है, जिससे वे स्थानीय जरूरतों के अनुसार कानून बना सकें।
    हालाँकि, राष्ट्रीय संकट के समय केंद्र सरकार को सीमित हस्तक्षेप करने की अनुमति दी गई है।

    📌 "राज्य सूची भारत की संघीयता को मजबूत करती है, जिससे प्रत्येक राज्य अपनी आवश्यकताओं के अनुसार नीतियाँ बना सके। लेकिन संतुलन बनाए रखना ज़रूरी है, ताकि केंद्र और राज्य दोनों सुचारू रूप से काम कर सकें।" 🚩

     

    🔷 समवर्ती सूची (सूची III) – केंद्र और राज्य सरकारों की साझा विधायी शक्तियाँ

     

    भारतीय संविधान ने संघीय व्यवस्था को अपनाते हुए केंद्र और राज्यों के बीच तीन प्रकार की सूचियाँ बनाई हैं: संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची। इनमें समवर्ती सूची (Concurrent List – सूची III) ऐसी सूची है, जिस पर केंद्र और राज्य सरकार दोनों कानून बना सकते हैं।

     

    🔶 समवर्ती सूची क्या है?

     

    यह सूची उन विषयों से संबंधित है, जिन पर केंद्र और राज्यों को समान रूप से कानून बनाने का अधिकार होता है।
    अनुच्छेद 246(2) के अनुसार, यदि राज्य और केंद्र सरकार दोनों ने किसी विषय पर कानून बनाया हो और उनमें टकराव हो जाए, तो केंद्र का कानून प्रभावी रहेगा (अनुच्छेद 254)
    संविधान लागू होने के समय समवर्ती सूची में 47 विषय थे, जो अब बढ़कर 52 हो गए हैं।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 M. Karunanidhi v. Union of India (1979): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि राज्य का कानून केंद्र के कानून के विपरीत नहीं है, तो वह लागू रहेगा, लेकिन टकराव की स्थिति में केंद्र का कानून प्राथमिकता प्राप्त करेगा।

     

    🔷 समवर्ती सूची के महत्वपूर्ण विषय

    🔹 आपराधिक कानून (Criminal Law): भारतीय न्याय संहिता (BNS), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), भारतीय दंड संहिता (IPC) और दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC)
    🔹 विवाह और तलाक (Marriage & Divorce): हिंदू विवाह अधिनियम, मुस्लिम पर्सनल लॉ आदि।
    🔹 श्रम कानून (Labour Laws): न्यूनतम वेतन, कर्मचारी कल्याण, औद्योगिक विवाद।
    🔹 शिक्षा (Education): उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण।
    🔹 वन और पर्यावरण (Forests & Environment): पर्यावरण संरक्षण, वन्य जीव संरक्षण।
    🔹 आर्थिक और सामाजिक नियोजन (Economic & Social Planning): पंचवर्षीय योजनाएँ, गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम।
    🔹 दिवालियापन और दिवालियापन (Bankruptcy & Insolvency): ऋण वसूली कानून।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 State of Madhya Pradesh v. G.C. Mandawar (1954): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि समवर्ती सूची के विषयों पर राज्य और केंद्र दोनों ने कानून बनाए हैं और उनमें टकराव होता है, तो केंद्र का कानून मान्य होगा।

     

    🔶 समवर्ती सूची में केंद्र और राज्य के अधिकार

     

    राज्य सरकार समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बना सकती है, लेकिन यह केंद्र सरकार के कानून से विरोधाभासी नहीं होना चाहिए।
    यदि राज्य सरकार कोई ऐसा कानून बनाती है जो केंद्र के कानून से भिन्न हो, तो उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त करनी होगी (अनुच्छेद 254(2))
    आपातकाल (अनुच्छेद 352) के दौरान, संसद को समवर्ती सूची और राज्य सूची दोनों पर पूर्ण अधिकार मिल जाता है।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 Hoechst Pharmaceuticals Ltd. v. State of Bihar (1983): सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि संविधान का अनुच्छेद 254 केंद्र सरकार को समवर्ती सूची में अंतिम निर्णय लेने की शक्ति देता है।

     

    🔷 विशेष तथ्य

     

    समवर्ती सूची भारतीय संविधान की संघीय व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण भाग है, जो केंद्र और राज्यों को साझा कानून बनाने की शक्ति देती है।
    हालाँकि, टकराव की स्थिति में केंद्र सरकार का कानून सर्वोच्च माना जाता है, जिससे राष्ट्रीय एकता बनी रहे।
    संविधान में शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए यह सुनिश्चित किया गया है कि दोनों सरकारें कानून बना सकें, लेकिन संविधान के मूल ढांचे को नुकसान न पहुँचे।

    📌 "समवर्ती सूची केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग का प्रतीक है। यह सुनिश्चित करती है कि राष्ट्रीय स्तर पर एकरूपता बनी रहे, लेकिन राज्यों की ज़रूरतों को भी ध्यान में रखा जाए।" 🚩

     

    विधायी शक्तियों के इस विभाजन के अलावा, भारतीय संविधान में अवशिष्ट शक्तियाँ भी शामिल हैं, जो केंद्र सरकार में निहित हैं। ये शक्तियाँ केंद्र सरकार को किसी भी ऐसे विषय पर कानून बनाने की अनुमति देती हैं जिसका उल्लेख तीनों सूचियों में से किसी में भी स्पष्ट रूप से नहीं किया गया है।

     

    आपातकालीन प्रावधान:

     

    भारतीय संविधान में भाग XVIII (अनुच्छेद 352-360) के अंतर्गत आपातकालीन प्रावधान शामिल हैं। ये प्रावधान कुछ संकटों के दौरान शक्तियों के सामान्य वितरण को अस्थायी रूप से निलंबित करने की अनुमति देते हैं। संविधान में तीन प्रकार की आपात स्थितियों का उल्लेख किया गया है:

     

    🔷 राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) – भारत में आपातकालीन शासन प्रणाली

     

    भारतीय संविधान का अनुच्छेद 352 केंद्र सरकार को राष्ट्रीय आपातकाल (National Emergency) लागू करने का अधिकार देता है। यह भारत की संप्रभुता, सुरक्षा और अखंडता की रक्षा के लिए एक असाधारण प्रावधान है, जिसे केवल अत्यधिक संकट की स्थिति में ही लागू किया जाता है।

     

    🔶 राष्ट्रीय आपातकाल कब लगाया जा सकता है?

     

    अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रपति राष्ट्रीय आपातकाल तब लागू कर सकते हैं, जब:
    🔹 युद्ध (War)यदि किसी विदेशी देश के साथ युद्ध की स्थिति हो।
    🔹 बाहरी आक्रमण (External Aggression)जब भारत पर विदेशी हमला हो या आसन्न खतरा हो।
    🔹 सशस्त्र विद्रोह (Armed Rebellion)जब देश के भीतर गृहयुद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आपातकाल के दौरान भी संविधान के "मूल ढांचे" को बदला नहीं जा सकता।

     

    🔷 राष्ट्रीय आपातकाल लागू होने के प्रभाव

    संविधान और नागरिक अधिकारों पर प्रभाव:
    🔹 राज्यों की शक्तियाँ सीमित हो जाती हैं, और केंद्र सरकार को पूर्ण नियंत्रण मिल जाता है।
    🔹 संविधान के भाग III (मौलिक अधिकारों) को निलंबित किया जा सकता है, लेकिन अनुच्छेद 20 और 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) लागू रहेंगे।
    🔹 मीडिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नियंत्रण लगाया जा सकता है।
    🔹 संसद का कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 ADM जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला (1976): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकार निलंबित किए जा सकते हैं, लेकिन बाद में इस निर्णय की आलोचना हुई।

     

    🔶 अब तक भारत में कितनी बार राष्ट्रीय आपातकाल लगाया गया है?

     

    भारत में तीन बार राष्ट्रीय आपातकाल लागू किया गया है:
    1. 1962 (चीन-भारत युद्ध): चीन के आक्रमण के कारण घोषित किया गया।
    2. 1971 (भारत-पाकिस्तान युद्ध): बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान लागू हुआ।
    3. 1975 (आंतरिक संकट): तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने "आंतरिक अशांति" के आधार पर आपातकाल लगाया, जिसे लोकतंत्र पर सबसे बड़ा हमला माना गया।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान में शक्ति संतुलन बनाए रखना आवश्यक है और संसद को असीमित शक्ति नहीं दी जा सकती।

     

    🔷 आपातकालीन प्रावधानों में किए गए सुधार

     

    आपातकालीन दुरुपयोग को रोकने के लिए 44वें संविधान संशोधन (1978) में निम्नलिखित बदलाव किए गए:
    🔹 अब केवल "युद्ध" और "बाहरी आक्रमण" ही नहीं, बल्कि "सशस्त्र विद्रोह" को भी आपातकाल के कारणों में जोड़ा गया।
    🔹 राष्ट्रीय आपातकाल लागू करने के लिए अब कैबिनेट की लिखित सिफारिश आवश्यक कर दी गई।
    🔹 लोकसभा को हर 6 महीने में आपातकाल की समीक्षा करनी होगी।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 राज नारायण बनाम इंदिरा गांधी (1975): इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध ठहराया, जिसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय आपातकाल लगाया।

     

    🔷 विशेष तथ्य

     

    राष्ट्रीय आपातकाल एक असाधारण संवैधानिक प्रावधान है, जिसका उद्देश्य देश की सुरक्षा सुनिश्चित करना है।
    हालाँकि, 1975 के आपातकाल के दुरुपयोग के बाद इसमें आवश्यक सुधार किए गए, जिससे लोकतांत्रिक संतुलन बना रहे।
    संविधान अब यह सुनिश्चित करता है कि राष्ट्रीय आपातकाल केवल वास्तविक संकट की स्थिति में ही लागू किया जाए, न कि राजनीतिक लाभ के लिए।

    📌 "राष्ट्रीय आपातकाल का सही उपयोग देश की सुरक्षा को मजबूत करता है, लेकिन इसका दुरुपयोग लोकतंत्र को कमजोर कर सकता है।" 🚩

    🔷 राज्य आपातकाल (अनुच्छेद 356) – राष्ट्रपति शासन का संवैधानिक प्रावधान

    भारतीय संविधान का अनुच्छेद 356 केंद्र सरकार को यह अधिकार देता है कि यदि किसी राज्य की सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुसार कार्य करने में असमर्थ हो, तो वहां "राष्ट्रपति शासन" लगाया जा सकता है। इसे "राज्य आपातकाल" भी कहा जाता है।

     

    🔶 राज्य आपातकाल कब लगाया जाता है?

     

    संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति राज्य में आपातकाल तब लागू कर सकते हैं, जब:
    🔹 राज्य सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुसार काम करने में विफल हो।
    🔹 राज्य में कानून-व्यवस्था पूरी तरह से बिगड़ जाए और राज्य सरकार उसे संभालने में अक्षम हो।
    🔹 राज्यपाल राष्ट्रपति को रिपोर्ट भेजकर अनुच्छेद 356 के तहत राज्य में आपातकाल की सिफारिश करे।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 SR Bommai v. Union of India (1994): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति शासन लगाने का निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन होगा और इसका दुरुपयोग नहीं किया जा सकता।

    🔷 राज्य आपातकाल लागू होने के प्रभाव

     

    संविधान और राज्य सरकार की शक्तियों पर प्रभाव:
    🔹 राज्य सरकार को भंग कर दिया जाता है, और राज्य का प्रशासन राष्ट्रपति के अधीन आ जाता है।
    🔹 राज्य विधानमंडल को निलंबित या भंग किया जा सकता है।
    🔹 राज्यपाल राज्य के प्रमुख प्रशासक के रूप में कार्य करता है और राष्ट्रपति के निर्देशों के अनुसार कार्य करता है।
    🔹 केंद्र सरकार राज्य के बजट और कानून व्यवस्था को सीधे नियंत्रित करने लगती है।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 Kihoto Hollohan v. Zachillhu (1992): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल का निर्णय मनमाना नहीं होना चाहिए और इसे न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।

     

    🔶 अब तक भारत में कितनी बार राज्य आपातकाल लगाया गया है?

    1950 से अब तक 125 से अधिक बार अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू किया जा चुका है।
    पहली बार 1951 में पंजाब में राज्य आपातकाल लगाया गया था।
    1977 में जनता पार्टी सरकार ने कई राज्यों में कांग्रेस सरकारों को हटाने के लिए अनुच्छेद 356 का उपयोग किया।
    1989 और 1992 में कई राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 Rameshwar Prasad v. Union of India (2006): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केंद्र सरकार अनुच्छेद 356 का उपयोग राजनीतिक उद्देश्यों के लिए नहीं कर सकती।

     

    🔷 44वें संविधान संशोधन (1978) के बाद किए गए सुधार

    1975-77 के आपातकाल के दुरुपयोग को रोकने के लिए 44वें संशोधन द्वारा राज्य आपातकाल में सुधार किए गए:
    🔹 राष्ट्रपति शासन की अधिकतम अवधि अब 6 महीने होगी, लेकिन इसे संसद की मंजूरी से 3 साल तक बढ़ाया जा सकता है।
    🔹 हर 6 महीने में संसद को इसकी समीक्षा करनी होगी।
    🔹 सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्य आपातकाल के फैसले की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 Bommai केस (1994): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 356 का उपयोग केवल वास्तविक संवैधानिक संकट में किया जाना चाहिए, न कि राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए।

     

    🔷विशेष तथ्य

    राज्य आपातकाल एक असाधारण संवैधानिक प्रावधान है, जिसे केवल गंभीर संवैधानिक संकट की स्थिति में ही लागू किया जाना चाहिए।
    हालाँकि, 44वें संशोधन और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के बाद, इसका राजनीतिक दुरुपयोग कम हुआ है।
    संविधान यह सुनिश्चित करता है कि राज्यों की स्वायत्तता बनी रहे और केंद्र सरकार अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग न करे।

    📌 "राज्य आपातकाल भारत की संघीय व्यवस्था को संतुलित करने का एक संवैधानिक उपकरण है, लेकिन इसका उपयोग अत्यंत सावधानीपूर्वक और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करते हुए किया जाना चाहिए।" 🚩

     

    🔷 वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360) – आर्थिक संकट से निपटने का संवैधानिक प्रावधान

    भारतीय संविधान का अनुच्छेद 360 केंद्र सरकार को यह अधिकार देता है कि यदि देश की वित्तीय स्थिरता या साख को गंभीर खतरा हो, तो "वित्तीय आपातकाल" (Financial Emergency) घोषित किया जा सकता है। यह एक अत्यधिक असाधारण स्थिति में उठाया जाने वाला कदम है, जिसे अब तक कभी लागू नहीं किया गया है।

     

    🔶 वित्तीय आपातकाल कब लगाया जा सकता है?

     

    संविधान के अनुच्छेद 360 के तहत राष्ट्रपति वित्तीय आपातकाल तब लागू कर सकते हैं, जब:
    🔹 भारत की वित्तीय स्थिरता को गंभीर खतरा हो।
    🔹 देश या उसके किसी भाग की क्रेडिट (साख) पूरी तरह से गिर जाए।
    🔹 राज्यों के वित्तीय संसाधनों में इतनी कमी हो कि वे अपने बुनियादी खर्च पूरे न कर सकें।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 Rameshwar Prasad v. Union of India (2006): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्थिक आपातकाल के दौरान न्यायपालिका इसकी समीक्षा कर सकती है, ताकि इसका दुरुपयोग न हो।

     

    🔷 वित्तीय आपातकाल लागू होने के प्रभाव

    संविधान और राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता पर प्रभाव:
    🔹 केंद्र सरकार राज्यों के वित्तीय मामलों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लेती है।
    🔹 सरकारी कर्मचारियों की वेतन कटौती की जा सकती है।
    🔹 राष्ट्रपति को यह अधिकार मिल जाता है कि वह राज्य सरकारों को वित्तीय प्रबंधन से जुड़े आदेश दे सके।
    🔹 केंद्र और राज्य सरकारों के सभी खर्चों की संसद द्वारा समीक्षा की जाती है।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 Minerva Mills v. Union of India (1980): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वित्तीय आपातकाल जैसे संवैधानिक प्रावधानों का उपयोग राष्ट्रहित में होना चाहिए, न कि राजनीतिक लाभ के लिए।

     

    🔶 अब तक भारत में वित्तीय आपातकाल क्यों नहीं लगाया गया?

    हालाँकि भारत को कई आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ा है, लेकिन वित्तीय आपातकाल कभी लागू नहीं किया गया, इसके पीछे कई कारण हैं:
    🔹 1991 का आर्थिक संकट: जब भारत का विदेशी मुद्रा भंडार बहुत कम हो गया था, तब भी सरकार ने सुधारवादी नीतियों को अपनाकर स्थिति को संभाल लिया।
    🔹 2008 की वैश्विक मंदी: भारत ने अपने आर्थिक तंत्र को सुदृढ़ बनाए रखा, जिससे वित्तीय आपातकाल की नौबत नहीं आई।
    🔹 कोविड-19 महामारी (2020): देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई, लेकिन आत्मनिर्भर भारत योजना और आर्थिक पैकेजों से इसे संभाल लिया गया।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 S.R. Bommai v. Union of India (1994): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान के किसी भी आपातकालीन प्रावधान का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।

     

    🔷 वित्तीय आपातकाल से बचाव के उपाय

     

    देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाए रखने के लिए सरकार को निम्नलिखित कदम उठाने चाहिए:
    🔹 वित्तीय अनुशासन बनाए रखना: सरकार को अपने खर्चों को नियंत्रित रखना चाहिए।
    🔹 राज्यों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाना: राज्यों को अधिक वित्तीय संसाधन और स्वायत्तता प्रदान करनी चाहिए।
    🔹 वैश्विक मंदी के प्रभाव को कम करना: निवेश को बढ़ावा देना और नए आर्थिक सुधार लागू करना।
    🔹 राजकोषीय उत्तरदायित्व कानून (FRBM Act): इस कानून के तहत सरकार पर वित्तीय अनुशासन बनाए रखने की बाध्यता है।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 Kihoto Hollohan v. Zachillhu (1992): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यों की स्वायत्तता को बनाए रखना आवश्यक है, और केंद्र सरकार को आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप सोच-समझकर करना चाहिए।

     

    🔷 विशेष तथ्य

    वित्तीय आपातकाल भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण प्रावधान है, लेकिन इसे अब तक कभी लागू नहीं किया गया है।
    भारत ने अब तक अपने आर्थिक संकटों को वित्तीय आपातकाल लगाए बिना हल किया है, जो एक मजबूत लोकतांत्रिक और आर्थिक प्रणाली का संकेत है।
    यदि भविष्य में इस प्रावधान का उपयोग होता है, तो इसका उद्देश्य केवल आर्थिक स्थिरता बनाए रखना होना चाहिए, न कि राजनीतिक स्वार्थ साधना।

    📌 "वित्तीय आपातकाल भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक अंतिम उपाय है। सरकार को अपने आर्थिक नीतियों को सुदृढ़ करके यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस प्रावधान का उपयोग कभी न करना पड़े।" 🚩

    सरकार को राज्यों के वित्तीय मामलों पर नियंत्रण करने का निर्देश दे सकते हैं।

     

    आपातकालीन प्रावधानों को असाधारण उपाय माना जाता है और इनका इस्तेमाल बहुत कम किया जाता है। ये अस्थायी होते हैं और इन्हें संसद द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए। ये प्रावधान केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्ति संतुलन को महत्वपूर्ण रूप से बदल देते हैं और इनका उद्देश्य असाधारण स्थितियों को संबोधित करना है जो भारत की अखंडता, सुरक्षा या वित्तीय स्थिरता के लिए खतरा पैदा करते हैं।

     

    🔷 भारत में शक्तियों का वितरण और आपातकालीन प्रावधानों का महत्व

     

    भारतीय संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण एक संघीय विशेषता है, जो राज्यों को स्वायत्तता प्रदान करता है, लेकिन साथ ही राष्ट्र की एकता और अखंडता बनाए रखने के लिए केंद्र को अधिक अधिकार देता है। संविधान के सातवीं अनुसूची में केंद्र और राज्यों की शक्तियाँ संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची में विभाजित हैं।

    हालाँकि, असाधारण परिस्थितियों में, संविधान केंद्र को राज्यों पर नियंत्रण करने की शक्ति भी प्रदान करता है, जिसे आपातकालीन प्रावधानों (अनुच्छेद 352-360) के माध्यम से लागू किया जाता है। इन प्रावधानों का उद्देश्य राष्ट्रीय संकट के समय त्वरित और प्रभावी शासन सुनिश्चित करना है।

     

    🔶 शक्तियों के वितरण और आपातकाल के बीच संतुलन

     

    संघीय ढाँचे की रक्षा: संविधान ने केंद्र और राज्यों के बीच स्पष्ट शक्तियाँ बाँटी हैं, जिससे राज्यों की स्वायत्तता सुनिश्चित होती है।
    आपातकालीन स्थिति में केंद्रीय हस्तक्षेप: आपातकालीन प्रावधान विशेष परिस्थितियों में केंद्र को राज्य सरकारों पर नियंत्रण करने का अधिकार देते हैं।
    लोकतांत्रिक संरचना बनाए रखना: आपातकाल लागू करने की प्रक्रिया को संवैधानिक सुरक्षा उपायों से सुरक्षित किया गया है, ताकि इसका दुरुपयोग न हो।
    राज्य और केंद्र के बीच शक्ति संतुलन: संसद और न्यायपालिका के हस्तक्षेप से केंद्र सरकार को यह अधिकार नहीं है कि वह राज्यों के अधिकारों का अनावश्यक हनन करे

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान की "मूल संरचना" को बदला नहीं जा सकता, जिसमें संघीय व्यवस्था भी शामिल है।
    🔹 एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994): इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 356 (राज्य आपातकाल) का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता, और राष्ट्रपति शासन न्यायिक समीक्षा के अधीन रहेगा।
    🔹 मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान में शक्ति संतुलन बनाए रखना आवश्यक है और संसद को असीमित शक्ति नहीं दी जा सकती।

     

    🔷 आपातकालीन प्रावधान: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

    भारत में अब तक तीन बार राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) लगाया गया है:

    1962: चीन-भारत युद्ध के दौरान।
    1971: पाकिस्तान-भारत युद्ध के दौरान।
    1975: तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लागू किया गया, जिसे लोकतंत्र पर हमला माना गया।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:

    🔹 केशवानंद भारती केस (1973): आपातकालीन शक्तियों पर रोक लगाई गई और यह सिद्धांत दिया गया कि संविधान के मूल ढाँचे को बदला नहीं जा सकता।
    🔹 राज नारायण बनाम इंदिरा गांधी (1975): कोर्ट ने चुनावी भ्रष्टाचार के आधार पर इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित किया, जिससे आपातकाल लगाने की स्थिति उत्पन्न हुई।
    🔹 44वाँ संविधान संशोधन (1978): इस संशोधन के जरिए अनुच्छेद 352 में बदलाव किया गया और आपातकाल लगाने की प्रक्रिया को और अधिक लोकतांत्रिक बनाया गया।

     

    🔶 आपातकालीन प्रावधानों की आलोचना और सुधार

     

    🔹 संघीय ढाँचे पर खतरा: आपातकालीन प्रावधान राज्य सरकारों की स्वायत्तता को सीमित कर देते हैं, जिससे संघीय ढाँचे को नुकसान हो सकता है।
    🔹 लोकतांत्रिक मूल्यों पर प्रभाव: 1975 का आपातकाल दर्शाता है कि यह प्रावधान सरकार द्वारा राजनीतिक हितों के लिए दुरुपयोग किया जा सकता है।
    🔹 न्यायिक हस्तक्षेप आवश्यक: सुप्रीम कोर्ट ने कई बार स्पष्ट किया है कि आपातकालीन शक्तियों का मनमाना प्रयोग संविधान के विरुद्ध होगा।
    🔹 संशोधन और सुधार: 44वें संशोधन (1978) में यह प्रावधान किया गया कि राष्ट्रीय आपातकाल लगाने से पहले राष्ट्रपति को कैबिनेट की लिखित सिफारिश लेनी होगी।

    📌 महत्वपूर्ण सुधार:

    अनुच्छेद 352 में संशोधन: अब राष्ट्रीय आपातकाल केवल युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में ही लगाया जा सकता है।
    लोकसभा को शक्ति दी गई: अब आपातकाल घोषित करने के 30 दिन के भीतर इसे लोकसभा में बहुमत से पारित करना आवश्यक है।
    राज्य आपातकाल की समीक्षा: अब अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन एक बार में अधिकतम छह महीने के लिए ही लागू किया जा सकता है, और इसे अधिकतम तीन वर्षों तक बढ़ाया जा सकता है।

     

    🔷 भविष्य की चुनौतियाँ और समाधान

    🔹 राज्यों की स्वायत्तता को मजबूत करना: केंद्र को आपातकालीन शक्तियों का प्रयोग करने से पहले राज्यों से अधिक परामर्श लेना चाहिए।
    🔹 संविधान के मूल ढाँचे की रक्षा: न्यायपालिका को आपातकाल लागू करने के निर्णयों की न्यायिक समीक्षा करने के अधिकार को और मजबूत करना चाहिए।
    🔹 राजनीतिक दुरुपयोग पर नियंत्रण: आपातकाल का प्रयोग केवल वास्तविक राष्ट्रीय संकट के समय ही किया जाना चाहिए, राजनीतिक लाभ के लिए नहीं।
    🔹 संविधान में और अधिक सुरक्षा उपाय: संसद को आपातकालीन प्रावधानों को सशक्त बनाने के बजाय, उनकी सीमाओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना चाहिए।

    📌 महत्वपूर्ण सुझाव:

    संघीय ढाँचे की रक्षा के लिए राज्यों को अधिक शक्तियाँ दी जाएँ।
    आपातकाल लागू करने से पहले संसद की अधिक भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
    संविधान में और संशोधन करके केंद्र की शक्तियों को संतुलित किया जाए।

     

    🔷 निष्कर्ष:

    भारतीय संविधान में शक्तियों का संतुलन बनाए रखने के लिए केंद्र और राज्यों के बीच स्पष्ट सीमाएँ निर्धारित की गई हैं। हालाँकि, आपातकालीन प्रावधान असाधारण परिस्थितियों के लिए बनाए गए हैं, लेकिन इनका अनुचित उपयोग लोकतंत्र के लिए खतरा हो सकता है।

    संविधान में केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का संतुलन बनाए रखा गया है, जिससे संघीय ढाँचा मजबूत बना रहे।
    आपातकालीन प्रावधान केवल राष्ट्रीय संकट के दौरान लागू किए जाने चाहिए और इनके दुरुपयोग को रोकने के लिए संसद और न्यायपालिका को सशक्त भूमिका निभानी चाहिए।
    संवैधानिक सुधारों के जरिए आपातकालीन शक्तियों को और अधिक पारदर्शी और उत्तरदायी बनाने की जरूरत है।

    📌 "संविधान का सम्मान केवल शब्दों में नहीं, बल्कि उसके संघीय और लोकतांत्रिक ढाँचे को बनाए रखने में है। आपातकालीन प्रावधानों का सही उपयोग देश की सुरक्षा सुनिश्चित करता है, लेकिन उनका दुरुपयोग लोकतंत्र को कमजोर कर सकता है।" 🚩

     

    🔷 अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs) – भारत में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का वितरण एवं आपातकालीन प्रावधान

     

    1. केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण किस आधार पर किया गया है?

    🔹 उत्तर:
    भारतीय संविधान में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का संतुलित विभाजन किया गया है, ताकि संघीय ढांचे को बनाए रखा जा सके। यह विभाजन सातवीं अनुसूची के तहत तीन सूचियों में किया गया है:

    संघ सूची: केंद्र सरकार के अधीन विषय – रक्षा, विदेश नीति, परमाणु ऊर्जा, रेलवे, दूरसंचार आदि।
    राज्य सूची: राज्य सरकारों के अधीन विषय – पुलिस, कृषि, स्वास्थ्य, भूमि, स्थानीय सरकार आदि।
    समवर्ती सूची: दोनों सरकारों के अधीन विषय – शिक्षा, विवाह, श्रम कानून, पर्यावरण संरक्षण आदि।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:
    🔹 केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संघीय ढांचे को संविधान की मूल संरचना का हिस्सा माना जाएगा, जिसे बदला नहीं जा सकता।

     

    2. जब केंद्र और राज्य के कानूनों में टकराव हो तो कौन सा कानून लागू होगा?

    🔹 उत्तर:
    यदि किसी विषय पर राज्य और केंद्र दोनों ने कानून बनाए हैं, तो संविधान के अनुच्छेद 254 के तहत केंद्र का कानून प्राथमिकता प्राप्त करेगा।
    यदि राज्य का कानून केंद्र के कानून से अलग है, तो उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त होनी चाहिए।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:
    🔹 एम. करुणानिधि बनाम भारत संघ (1979): सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि कोई राज्य कानून केंद्र के कानून के विपरीत है और उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति नहीं मिली है, तो वह अमान्य होगा।

     

    3. केंद्र सरकार को आपातकालीन प्रावधानों के तहत कौन-कौन सी विशेष शक्तियाँ मिलती हैं?

    🔹 उत्तर:
    संविधान के भाग XVIII (अनुच्छेद 352-360) में आपातकालीन प्रावधान दिए गए हैं।
    आपातकाल के दौरान, केंद्र सरकार राज्यों की अधिकांश शक्तियाँ अपने हाथ में ले सकती है।

    📌 तीन प्रकार के आपातकाल:
    1. राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352): युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में लागू।
    2. राज्य आपातकाल (अनुच्छेद 356): जब किसी राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो जाए, तो राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है।
    3. वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360): जब देश की वित्तीय स्थिरता को खतरा हो।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:
    🔹 एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994): सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्य सरकारों को अनुचित तरीके से बर्खास्त नहीं किया जा सकता और राष्ट्रपति शासन न्यायिक समीक्षा के अधीन होगा।

     

    4. अब तक भारत में कितनी बार राष्ट्रीय आपातकाल लागू किया गया है?

    🔹 उत्तर:
    भारत में तीन बार राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) लागू किया गया है:

    1962: चीन-भारत युद्ध के दौरान।
    1971: भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान।
    1975: तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल, जिसे लोकतंत्र पर हमला माना गया।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:
    🔹 राज नारायण बनाम इंदिरा गांधी (1975): इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित किया, जिसके बाद उन्होंने आपातकाल लागू किया।
    🔹 44वाँ संविधान संशोधन (1978): इस संशोधन के जरिए आपातकाल लगाने की प्रक्रिया को अधिक लोकतांत्रिक बनाया गया।

     

    5. अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) को किन परिस्थितियों में लागू किया जा सकता है?

    🔹 उत्तर:
    अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन तब लागू किया जाता है जब राज्य सरकार संविधान के अनुसार कार्य करने में असमर्थ हो।
    इस दौरान, राज्य की कार्यपालिका और विधायिका को निलंबित कर दिया जाता है, और राष्ट्रपति राज्य का सीधा प्रशासन करते हैं।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:
    🔹 एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार को बर्खास्त करने का निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन होगा और इसका दुरुपयोग नहीं किया जा सकता।

     

    6. क्या केंद्र सरकार राज्यों की शक्तियाँ छीन सकती है?

    🔹 उत्तर:
    सामान्य परिस्थितियों में केंद्र सरकार राज्यों की शक्तियाँ नहीं छीन सकती।
    हालाँकि, आपातकाल लागू होने पर केंद्र को विशेष शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
    अनुच्छेद 249 के तहत, यदि राज्यसभा यह घोषित करती है कि किसी राज्य सूची के विषय पर कानून बनाना राष्ट्रीय हित में है, तो केंद्र उस विषय पर कानून बना सकता है।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:
    🔹 मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान में शक्ति संतुलन बनाए रखना आवश्यक है और संसद को असीमित शक्ति नहीं दी जा सकती।

     

    7. क्या वित्तीय आपातकाल (अनुच्छेद 360) भारत में कभी लागू किया गया है?

    🔹 उत्तर:
    नहीं, भारत में आज तक कभी भी वित्तीय आपातकाल लागू नहीं किया गया है।
    इस आपातकाल के दौरान केंद्र सरकार राज्यों के वित्तीय मामलों पर पूर्ण नियंत्रण कर सकती है।

    📌 महत्वपूर्ण विशेषताएँ:
    🔹 केंद्र राज्यों के वित्तीय संसाधनों पर नियंत्रण कर सकता है।
    🔹 सरकारी कर्मचारियों के वेतन में कटौती की जा सकती है।
    🔹 सभी वित्तीय विधेयकों को राष्ट्रपति की मंजूरी लेनी होगी।

     

    8. आपातकालीन प्रावधानों के दुरुपयोग को रोकने के लिए क्या उपाय किए गए हैं?

    🔹 उत्तर:
    44वें संविधान संशोधन (1978) के माध्यम से आपातकालीन शक्तियों को सीमित किया गया।

    📌 महत्वपूर्ण सुधार:
    अब राष्ट्रीय आपातकाल केवल युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में ही लगाया जा सकता है।
    आपातकाल की घोषणा से पहले कैबिनेट की लिखित सिफारिश अनिवार्य कर दी गई।
    लोकसभा को आपातकाल की समीक्षा का अधिकार दिया गया।

    📌 महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय:
    🔹 केशवानंद भारती केस (1973): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान के मूल ढांचे को बदला नहीं जा सकता।

     

    🔷 विशेष तथ्य

    भारतीय संविधान ने संघीयता और केंद्र की शक्ति के बीच संतुलन बनाए रखा है, ताकि राज्यों को स्वतंत्रता मिले, लेकिन राष्ट्रीय अखंडता भी बनी रहे।
    आपातकालीन प्रावधान केवल असाधारण परिस्थितियों में लागू किए जाने चाहिए।
    न्यायपालिका ने स्पष्ट किया है कि आपातकालीन शक्तियों का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता।

    📌 "संविधान का सम्मान केवल शब्दों में नहीं, बल्कि उसके संघीय और लोकतांत्रिक ढाँचे को बनाए रखने में है। आपातकालीन प्रावधानों का सही उपयोग देश की सुरक्षा सुनिश्चित करता है, लेकिन उनका दुरुपयोग लोकतंत्र को कमजोर कर सकता है।" 🚩

     

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