1726 का राजलेख: इस दस्तावेज़ ने कैसे बदल दी थी भारत की राजनैतिक दिशा?

 





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1726 का राजलेख: इस दस्तावेज़ ने कैसे बदल दी थी भारत की राजनैतिक दिशा?


परिचय


1726 ई तक ईस्ट इंडिया कंपनी भारत के कई भारत के कई क्षेत्रों पर अधिकार कर चुकी थी, कंपनी ने मद्रास (चेन्नई), बंबई (मुंबई), कलकत्ता (कोलकाता) जैसे नगरों में आग्ल वस्तियाँ वसाना शुरू कर दिया था। बल्कि यहा की न्याय व्यवस्था में भि हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया था तथा यहए पर अंग्रेजी न्याय व्यवस्था को लागू कर दिया था। तथा विभिन्न प्रकार के न्यायालयो की व्यवस्था कर दी लेकिन इनकी यह न्याय व्यवस्था एकरूप नहीं थी इसलिए यह सफल नहीं हो सकी यह खबर जब इंग्लैंड के सम्राट जार्ज प्रथम को हुई तो उसके द्वारा 24 सितंबर 1726 को एक राजपत्र जारी किया गया जो 1726 का राजपत्र कहलाया।

"डॉ एस पी जैन ने इस राजपत्र को मद्रास (चेन्नई), बंबई (मुंबई), कलकत्ता (कोलकाता) में न्यायिक संस्थाओ के विकास मार्ग पर चलने वाला कहा था।"



    हम जानेगे कि आखिर 1726 ई के राजपत्र के क्या प्रावधान थे।

    हम इन प्रावधानों को तीन भागों में बाट सकते है।

    1-प्रशासनिक

    2-न्यायिक

    3-विधायी

     प्रशासनिक प्रावधान


    प्रशासनिक प्रावधान: मद्रास (चेन्नई), बंबई (मुंबई), कलकत्ता (कोलकाता) के प्रेसिडेंसी नगरों के प्रशासनिक स्तर को ऊंचा उठाने के लिए इन तीनों नगरों मे एक-एक नगर निगम स्थापित किया गया तथा इन तीनों निगम में एक मेयर तथा नौ एल्डरमैन होते थे। इनमे मेयर एवं सात एल्डरमैन को अंग्रेज होना आवश्यक होता था।

    मेयर का चुनाव कैसे होता था?


    मेयर का चुनाव एल्डरमैनो के द्वारा होता था । सभी एल्डरमैनो में से एक को मेयर चुन लिया जाता था तथा निगमित निकाय का स्वरूप प्रदान किया जाता था।

    मेयर एवं एल्डरमैनो को पदच्युत करने की शक्ति किसमे थी?


    मेयर एवं एल्डरमैनो को पद से हटाने की शक्ति सपरिषद राज्यपाल को होती थी। मेयर एवं एल्डरमैनो में कोई भी अगर अपने पद का दुरुपयोग करता था तो सपरिषद राज्यपाल इन्हे पदच्युत कर देता था।

    मेयर एवं एल्डरमैनो के अधिकार


    इन निगमों की अधिकारिता प्रेसिडेंसी नगरों की सीमा तथा उनके अधीन वहा स्थित कारखानों तक ही सीमित थी ।

    न्यायिक प्रावधान


    सन 1726 के राजपत्र का मुख्य उद्देश प्रेसिडेंसी नगरों में एक सुनिश्चित और सभी के लिए समान व्यवस्था स्थापित करना था। जिसमें निम्नलिखित प्रावधान किए गए थे

     मेयर न्यायालय की स्थापना 


    मेयर न्यायालय की स्थापना: इस चार्टर द्वारा सभी प्रेसिडेंसी नगर में एक-एक मेयर न्यायालय की स्थापना की गई थी। इस न्यायालय में एक मेयर नौ एल्डरमैनो की नियुक्ति की गई थी

    न्यायालय का स्वरूप


    न्यायालय निम्न प्रकार के होते थे
    • सिविल न्यायालय
    • आपराधिक न्यायालय
    • वसीयत संबंधी न्यायालय

    उक्त तीनों न्यायालय से संबंधित मामले मेयर न्यायालय को सुनने की शक्ति थी तथा दिये गये आदेश एवं न्यायालय की गरिमा जो कोई नहीं मानता था तो दोषी व्यक्तियों को दंडित भी कर सकते थे।

    शेरिफ़ की नियुक्ति


    मेयर न्यायालय के द्वारा जारी सम्मनों की तामील हेतु तथा डिक्रीयों के निष्पादन के लिए प्रेसिडेंसी नगर में एक-एक शेरिफ़ की नियुक्ति की गई थी।

    शेरिफ़ का कार्यकाल


    शेरिफ़ का कार्यकाल एक वर्ष का होता था

    शेरिफ़ का चुनाव


    शेरिफ़ का चुनाव प्रेसीडेंट एवं गवर्नर द्वारा किया जाता था

    शेरिफ़ का क्षेत्राधिकार


    शेरिफ़ अधिकार क्षेत्र प्रेसिडेंसी नगर के आस पास 10 मील तक होता था

    अपीलीय न्यायालय की स्थापना


    सन 1726 के राजपत्र में अपीलीय न्यायालय के गठन का भी प्रावधान था। मेयर न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध अपील सपरिषद राज्यपाल के न्यायालय मे की सकती थी। यह प्रथम अपील होती थी

    अपील का क्षेत्राधिकार


    एक हजार पैगोंडा (पैगोंडा जिसे हून भी कहा जाता है, मुद्रा की एक इकाई थी जो सोने से बना एक सिक्का था जिसे भारतीय राजवंशों के साथ-साथ ब्रिटिश ,फ़्रांससी और डच द्वारा ढाला गया था ) तब के मूल्याकन के मामलों में सपरिषद राज्यपाल के न्यायालय का निर्णय अंतिम माना जाता था । इससे अधिक मूल्यकन के वाद को प्रिवी कॉसिल किए जाने व्यवस्था थी। यह दूसरी अपील थी। तथा इसका निर्णय अंतिम माना जाता था

    शान्ति न्यायाधीशों की व्यवस्था


    प्रत्येक प्रेसीडेंसी नगर के सपरिषद राज्यपाल के पाँच वरिष्ठतम सदस्यों को शान्ति न्यायाधीश/शान्ति अधिकरणिक के रूप में नियुक्त किए जाने के प्रावधान भी चार्टर में रखा गया है। इनके कार्य, शक्तियाँ एवं अधिकारिता इंग्लैण्ड के शान्ति न्यायाधीशों जैसी ही थी।

    सैशन कोर्ट का गठन


    आपराधिक मामलों की सुनवाई करने के लिए सैशन न्यायालयों का गठन किया गया था। इसके पीठासीन अधिकारी सपरिषद राज्यपाल के पाँच वरिष्ठतम सदस्य होते थे। वह न्यायालय वर्ष में चार बार अर्थात् प्रत्येक त्रिमास में आपराधिक मामलों की सुनवाई करते थे।

    जूरी व्यवस्था


    आपराधिक मामलों का परीक्षण जूरी की सहायता से किया जाता था।

    विधायी प्रावधान


    सन् 1726 में राजपत्र में कई महत्त्वपूर्ण विधायी प्रावधान भी किए गए थे। इस चार्टर के द्वारा प्रेसीडेंसी नगरों को सपरिषद राज्यपाल को अपने निगमों के समुचित प्रशासन के लिए उपविधियाँ, नियम, अध्यादेश आदि पारित करने की शक्तियाँ प्रदान की गई। इनका उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों के लिए दण्ड की व्यवस्था करने का भी इन्हें अधिकार दिया गया, लेकिन आवश्यक था कि-

    • ऐसे नियम, उपविधियाँ, अध्यादेश आदि युक्तियुक्त अर्थात् न्यायोचित हो,
    • आंग्ल विधियों से असंगत नहीं हो, तथा
    • कंपनी के कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स द्वारा अनुमोदित हो।

    1726 के राजपत्र की विशेषताएँ


     सन् 1726 का राजपत्र कई विशेषताओं को समाहित किए हुए था। भारतीय विधि के इतिहास में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान एवं योगदान माना जाता है। इस राजपत्र की निम्नांकित विशेषताएँ रही हैं-

    •  इस राजपत्र के द्वारा बम्बई, मद्रास एवं कलकत्ता प्रेसीडेंसी नगरों की न्याय व्यवस्था को समाप्त कर वहाँ एकरूप न्याय व्यवस्था एवं प्रादुर्भाव किया गया। पूर्व न्याय व्यवस्था में एकरूपता (समरूपता) का अभाव था।
    • तत्कालीन न्यायालय कंपनी द्वारा निर्मित विधि के अधीन स्थापित किए गए थे जबकि सन् 1726 के राजपत्र द्वारा सीधे ही भारत में मेयर कोर्ट, शान्ति न्यायाधीश एवं सेशन न्यायालयों की स्थापना की गई थी।
    • यही वह चार्टर था जिसके द्वारा प्रथम बार एक हजार पैगोड़ा से अधिक मूल्य वाले मामलों के विरुद्ध प्रिवी परिषद किंग इन कौंसिल (King in Council) में अपील किए जाने का प्रावधान किया गया था।
    • यह राजपत्र न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक कर उसे स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष स्वरूप प्रदान करने वाला पहला राजपत्र माना जाता है।
    •  इस राजपत्र के द्वारा भारत में आंग्ल विधि का स्थानीय विधि के रूप में प्रादुर्भाव हुआ, जो एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि मानी जाती है।
    • इस राजपत्र के द्वारा पहली बार स्थानीय समस्याओं के निराकरण के लिए सपरिषद राज्यपाल के नियम, उपविधियाँ एवं अध्यादेश आदि पारित करने की शक्तियाँ प्रदान की गई थीं।

    इस प्रकार सन् 1726 का राजपत्र तत्कालीन न्याय व्यवस्था को स्वतन्त्र, निष्पक्ष, सुनिश्चित एवं सुदृढ़ स्वरूप प्रदान करने वाला एक अहम राजपत्र था। डॉ. एम.पी. जैन ने अपनी कृति “Indian Legal History” में इसे भारतीय विधि के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण एवं विलक्षण राजपत्र निरूपित किया है।


    1726 के राजपत्र के दोष


    सन् 1726 का राजपत्र यद्यपि अनेक विशेषताएँ लिए हुए था। फिर भी वह आलोचना का शिकार बना और उसके अनेक दोष सामने आए। इस राजपत्र के मुख्य दोष निम्नांकित हैं-
    • इस राजपत्र के अधीन नियुक्त न्यायाधीश सामान्यतः व्यापारी होते थे जिन्हें विधि का ज्ञान नहीं होता था। न्यायाधीश के लिए विधि विशेष होना आवश्यक नहीं था। परिणामस्वरूप पक्षकारों के साथ समुचित न्याय नहीं हो पाया था। यह इस राजपत्र को एक महत्त्वपूर्ण कमी थी।
    • यद्यपि कहने को तो सन् 1726 के राजपत्र को न्यायपालिका एवं कार्यपालिका के पृथक्करण (Separation) का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज कहा जाता है, लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं था। सपरिषद राज्यपाल (Government of Council) न्यायपालिका पर हावी थी, क्योंकि मेयर कोर्ट के फैसलों के विरुद्ध अपील सुनने का अधिकार इसे ही था। सपरिषद राज्यपाल का न्यायालय फौजदारी मामलों की सुनवाई की अधिकारिता भी रखता था। इस प्रकार न्यायपालिका एवं कार्यपालिका पूर्ण रूप से न तो पृथक हो पाए थे और न ही स्वतन्त्र। सपरिषद राज्यपाल व्यवस्थापिका एवं न्यायपालिका दोनों के कर्तव्यों का निर्वहन करती थी।
    • मेयर कोर्ट और सपरिषद राज्यपाल के सदस्यों के बीच अक्सर टकराव की स्थिति बनी रहती थी। सपरिषद राज्यपाल के सदस्य सदैव अपने को मेयर कोर्ट के न्यायाधीशों के ऊपर मानते थे जबकि मेयर कोर्ट के न्यायाधीश इनकी परवाह किए बिना अपने विवेकानुसार मामलों का निपटारा करते थे।
    • भारतीय जनता पर उनके वैयक्तिक एवं स्थानीय मामलों में आंग्ल विधि का लागू किया जाना इस राजपत्र की एक भारी भूल थी क्योंकि इससे भारतवासियों में असंतोष व्याप्त हो गया था।

    मेयर कोर्ट की न्याय व्यवस्था को परिलक्षित करने वाले कुछ महत्त्वपूर्ण मामले अवलोकन योग्य हैं जैसे-
    • संकूराम का मामला,
    • तेरियानी का मामला,
    • पगौड़ा शपथ का मामला आदि।

    सन् 1726 में चार्टर के अन्तर्गत शपथ पर बयान लेने की व्यवस्था की गई थी। मद्रास में प्रचलित व्यवस्था के अनुसार गीता की शपथ ली जाती थी। कुछ भारतीयों ने पगौड़ा की शपथ लेने से इंकार कर दिया। इस पर मेयर कोर्ट ने उन्हें जेल में भेज दिया। इसकी शिकायत मद्रास के राज्यपाल को भी की गई तो राज्यपाल ने उन्हें जेल से रिहा कर दिया। राज्यपाल द्वारा मेयर कोर्ट को निर्देश दिए गए कि भारतीयों को धार्मिक संस्कारों एवं रीति-रिवाजों में हस्ताक्षेप नहीं किया जाए बल्कि उनका सम्मान किया जाए।
    • इस प्रकार सन् 1726 का राजपत्र अधिक समय तक प्रभाव में नहीं रह सका और इसकी कमियों को दूर करने के लिए सन् 1753 में नया राजपत्र जारी करना
    • भारतीय विधि का इतिहास भारत में अंग्रेजों के आगमन तथा ईस्ट इण्डिया कंपनी की स्थापना से जुड़ा हुआ है। यह सर्वविदित है कि सन् 1601 में अंग्रेज लोग भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से आए थे।
    • उन्होंने सर्वप्रथम सन् 1612 में सूरत में तत्कालीन मुगल सम्राट जहाँगीर की अनुमति से एक फैक्ट्री की स्थापना की थी। तत्पश्चात् सन् 1639 में फ्रांसिस डे नामक एक अंग्रेज द्वारा चन्द्रगिरि के राजा से ईस्ट इण्डिया कंपनी के लिए कुछ भूमि प्राप्त की गई। प्रारम्भ में इसे मद्रास पट्टनम के नाम पे सम्बोधित किया गया।
    • यहाँ दो प्रकार की बस्तियाँ बसाई गईं जिन्हें नाम दिया गया- व्हाइट टाउन एवं ब्लैक टाउन। यही बस्तियाँ आगे चलकर मद्रास के नाम से विख्यात हुईं।

    इस प्रकार मद्रास नगर की स्थापना का श्रेय फ्रांसिस डे को जाता है।

    मद्रास का न्यायिक प्रशासन अपने प्रारम्भिक काल में मद्रास का न्यायिक प्रशासन स्पष्ट नहीं था। न तो न्यायिक संस्थाओं का कोई स्पष्ट स्वरूप था और न विधि का। यह भी पता नहीं था कि किन मामलों पर कौनसी विधि लागू होती थी। धीरे-धीरे न्यायिक प्रशासन में सुधार किया गया और इसे एक निश्चित स्वरूप प्रदान किया गया।

    मद्रास की न्यायिक अवस्था अथवा न्यायिक संस्थाओं के विकास को तीन चरणों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
    1. प्रथम चरण (सन् 1639 से 1665 तक);
    2. द्वितीय चरण (सन् 1666 से 1685 तक); तथा
    3. तृतीय चरण, (सन् 1686 से 1726 तक) ।

    प्रथम चरण: मद्रास में न्याय प्रशासन

    प्रथम चरण मद्रास में न्याय प्रशासन के प्रथम चरण में दो प्रकार के न्यायालय थे-

    1. एजेण्ट एवं काउंसिल के न्यायालय तथा
    2. चोल्ट्री कोर्ट

    एजेण्ट एवं काउन्सिल के न्यायालय व्हाइट टाउन के निवासियों के दीवानी एवं फौजदारी मामलों का निर्माण करते थे जबकि चौल्ट्री कोर्ट ब्लैक टाइन के निवासियों के मामलों का।

    प्रत्येक चौल्ट्री कोर्ट का न्यायाधीश एक भारतीय व्यक्ति होता था जिसे ‘आडिगर’  के नाम से जाना जाता था। आडिगर सामान्यतः गाँव का मुखिया हुआ करता था।

    चौल्ट्री कोर्ट का मुख्य कार्य था–

    • अपने क्षेत्र में शान्ति व्यवस्था बनाए रखना;
    • साधारण प्रकृति के दीवानी मामलों का निस्तारण करना;
    • चुंगी वसूल करना; तथा
    • भूमि के विखंडित-विषमता के संबंधित दस्तावेजी मामले आदि।

    इन न्यायालयों को गंभीर प्रकृति के आपराधिक मामलों की सुनवाई करने के लिए अधिकारिता नहीं थी। ऐसे मामलों का निपटारा करने से पूर्व शासक से परामर्श लेना अनिवार्य था। गंभीर अपराधों के लिए कोई निश्चित विधि भी नहीं थी। ऐसे मामलों का विनिश्चय अपराधी की परिस्थितियों के आधार पर किया जाता था।इसी दौरान सन् 1661 में चार्ल्स द्वितीय द्वारा एक चार्टर जारी किया गया जिसके परिणामस्वरूप समस्त न्यायिक शक्तियाँ सपरिषद् राज्यपाल में केन्द्रित हो गई तथा भारत स्थित आंग्ल बस्तियों में न्याय प्रशासन के लिए आंग्ल विधि का प्रयोग किया गया। इस प्रकार मद्रास की प्रथम चरण की न्यायिक व्यवस्था सुनिश्चित नहीं थी।

    तत्कालीन न्याय व्यवस्था का आभास हमें निम्नांकित मामलों से होता है-


    • भारतीय अभियुक्त द्वारा हत्या का मामला (-1641),
    • ब्रिटिश सैनिक की हत्या का मामला (1642),
    • सार्जेण्ट का मामला (1644) आदि।

    हत्या जैसे मामलों में बिना परीक्षण के अभियुक्त को दण्डित कर दिया जाता था। उस समय न तो कोई निश्चित विधि थी और न ही प्रक्रिया।

    द्वितीय चरण:मद्रास में न्यायिक प्रशासन

    द्वितीय चरण :- मद्रास में न्यायिक प्रशासन के विकास का दूसरा चरण सन् 1666 से सन् 1685 तक का काल माना जाता है।

     इस चरण में न्यायिक प्रशासन में कतिपय महत्त्वपूर्ण सुधार दिए गए, यथा-


    1-सपरिषद राज्यपाल के न्यायालय का गठन द्वितीय चरण में एजेण्ट एवं काउन्सिल के न्यायालय को सपरिषद राज्यपाल (Governor in Council) के न्यायालय में बदल दिया गया। इस न्यायालय को कंपनी के कर्मचारियों तथा प्रेसीडेंसी क्षेत्र में रहने वाले सभी अंग्रेज एवं भारतीयों के मामलों में सुनवाई की अधिकारिता थी। मामले चाहे वे सिविल हों अथवा आपराधिक, आंग्ल विधि के अनुसार निपटाए जाते थे। ऐसा माना जाता था कि परिषद राज्यपाल के न्यायालय की स्थापना का श्रेय एक यूरोपीय महिला एसेन्शिया डास के मामले को जाता है जिस पर अपनी एक दासी की हत्या का आरोप था। मामला गंभीर होने से एजेण्ट एवं काउन्सिल के न्यायालय द्वारा कंपनी के अधिकारियों से परामर्श किया गया। परामर्श में कहा गया है कि मामला सन् 1661 के चार्टर में की गई व्यवस्था के अनुसार निपटाया जाए। यह चार्टर न्यायिक शक्ति अथवा सपरिषद राज्यपाल को प्रदान करता था, अतः अब ये न्यायालय सपरिषद राज्यपाल के न्यायालय में बदल गए।यह न्यायालय सप्ताह में दो बार लगा करता था तथा 12 जूरियों की सहायता से दीवानी एवं फौजदारी मामलों का निपटारा करता था। आगे चलकर इस व्यवस्था में भी थोड़ा सुधार किया गया और सन् 1678 में इसे हाईकोर्ट ऑफ जूडिकेचर का दर्जा दे दिया गया। यह न्यायालय 10 जुलाई, 1686 तक कार्य करता रहा।

    2-चोल्ट्री कोर्ट का पुनर्गठन इसी चरण में चोल्ट्री कोर्ट की न्यायिक व्यवस्था में भी कुछ सुधार एवं परिवर्तन किया गया। अब इन कोर्टों में भारतीय न्यायाधीशों के स्थान पर कंपनी के अंग्रेज कर्मचारियों को न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जाने लगा। ये कर्मचारी अपने न्यायिक कार्यों के साथ-साथ वेतनाधिकारी, मुद्राधिकारी एवं चुंगी अधिकारी के रूप में भी कार्य करते थे। यह कोर्ट सप्ताह में दो बार मंगलवार एवं शुक्रवार को लगा करता था। इसका दीवानी अधिकार क्षेत्र पचास पगौड़ों तक सीमित था। फौजदारी अधिकारिता के अन्तर्गत जूरी की सहायता से छोटे- छोटे अपराधियों से सम्बन्धित मामलों को निर्णित किया जाता था।

    आपराधिक मामलों में बन्दी बनाए गए व्यक्तियों के लिए मार्शल की नियुक्ति की गई थी। यही वह काल था जिसमें दण्ड के तौर पर माल एवं सम्पत्ति की जब्ती की व्यवस्था की गई। कुछ मामलों में अंग्रेज अधिकारियों को बेनीफिट ऑफ क्लरजी की सुविधा भी उपलब्ध कराई गई थी।

    न्यायिक दृष्टि से सपरिषद राज्यपाल का न्यायालय अन्तिम न्यायालय था क्योंकि वही चोल्ट्री कोर्ट के निर्णयों के विरुद्ध अपीलों की सुनवाई करता था।

    तृतीय चरण :- न्यायिक प्रशासन  


    तृतीय चरण :- न्यायिक प्रशासन में सुधार की दृष्टि से इस चरण (1686 से 1726 तक) के महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस चरण में दो प्रकार के विशिष्ट न्यायालयों की स्थापना की गई थी-सामुदिक न्यायालय (Admiralty Court) तथा मेयर्स कोर्ट 

    1-सामुद्रिक न्यायालय :-तीसरे चरण की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि अथवा घटना सामुद्रिक न्यायालय की स्थापना माना जाता है। इस कोर्ट की स्थापना सन् 1686 में की गई थी। इसमें कुल तीन न्यायाधीश होते थे जिनमें से दो व्यापारी तथा एक कानून का ज्ञाता (विधि विशेषज्ञ) होता था। इन न्यायाधीशों को ‘जज एडवोकेट’ कहा जाता था। सन् 1687 में इस न्यायालय के लिए एक महाधिवक्ता तथा एक रजिस्ट्रार की नियुक्ति की गई थी। यह न्यायालय मद्रास क्षेत्र का शीर्षस्थ अर्थात् सर्वोच्च न्यायालय था।/यह न्यायालय दो दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण माना जाता है-
    • पहला यह है कि इसमें प्रथम बार अनुभवी अधिवक्ता (सर जॉन बिग्ज) को न्यायाधीश के पद पर नियुक्त किया गया था, तथा
    • दूसरा यह कि इसमें कंपनी की व्यवस्थापिका को न्याय प्रशासन से अलग रखा गया।

    इस प्रकार न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का श्रीगणेश इसी चरण में होता है।इस व्यवस्था का प्रभाव यह हुआ कि मद्रास के सपरिषद राज्यपाल के न्यायालय हाईकोर्ट ऑफ जुडीकेचर की अधिकारिता सामुद्रिक न्यायालय को सौंप दी गई। यही मेयर्स कोर्ट के फैसलों की अपीलें भी सुनता था। आपराधिक मामलों की सुनवाई जूरी (Jury) द्वारा की जाती थी।

    उधर सन् 1689 में सर जॉन बिग्ज (Sir John Bigges) की मृत्यु हो जाने से सामुद्रिक न्यायालय में कोई विधि विशेषज्ञ नहीं रह गया था, अतः सामुद्रिक न्यायालय एक बार निलम्बित हो गया और उसे मेयर्स कोर्ट के फैसलों के विरुद्ध अपीलों की सुनवाई की अधिकारिता नहीं रह गई। इसे पुनर्जीवित करने के लिए कोर्ट ऑफ जुडीकेचर का पुनर्गठन किया गया जिसमें तीन न्यायाधीश होते थे- एक विधि विशेषज्ञ तथा दो सपरिषद राज्यपाल के सदस्य। जज एडवोकेट के रूप में सर जॉन डोलबिन (Sir John Dolbin) की नियुक्ति की गई थी, लेकिन सन् 1694 में डोलविन को रिश्वत के आरोप में इस पद से हटा दिया गया था। इन सबके बावजूद यह न्यायालय सन् 1704 तक चलता रहा। इसी समय कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए गए जिनके अनुसार-
    • सपरिषद राज्यपाल के सदस्यों को एक-एक करके जज एडवोकेट का कार्यभार संभालना था,
    • कालान्तर में सन् 1704 में यह सुनिश्चित किया गया कि जज एडवोकेट का पद रिक्त रहना चाहिए,
    • सामुद्रिक न्यायालय की अधिकारिता का प्रयोग सपरिषद राज्यपाल द्वारा किया जाए तथा
    • सामुद्रिक न्यायालय एवं मेयर्स कोर्ट के फैसलों के विरुद्ध अपीलों की सुनवाई सपरिषद राज्यपाल के न्यायालय द्वारा की जाए।

    2-मेयर्स कोर्ट: मेयर्स कोर्ट की स्थापना इस चरण की दूसरी महत्त्वपूर्ण विशेषता है। सामुद्रिक न्यायालय की स्थापना के दो वर्ष बाद सन् 1687 में जारी राजपत्र के अन्तर्गत सन् 1688 में मद्रास में मेयर्स कोर्ट की स्थापना की गई। इस कोर्ट का गठन मेयर एवं एल्डरमैन से मिलकर होता था। इसमें एक मेयर तथा 12 एल्डरमैन की व्यवस्था की गई थी। मेयर तथा तीन एल्डरमैनों का कंपनी का अनुबंधित कर्मचारी होना आवश्यक था। शेष 9 एल्डरमैन किसी भी राष्ट्रीयता के हो सकते थे। गणपूर्ति के लिए एक मेयर तथा दो एल्डरमैनों की उपस्थिति पर्याप्त थी।

    मेयर्स कोर्ट की अधिकारिता अत्यन्त व्यापक थी। जो निम्नलिखित थी 

    • अभिलेख न्यायालय था,
    • दीवानी एवं फौजदारी मामलों की सुनवाई कर सकता था,
    • मृत्युदण्ड दे सकता था, लेकिन केवल भारतीयों को, अंग्रेजों को नहीं।

    मेंयर्स कोर्ट के फैसलों के विरुद्ध अपीलें सामुद्रिक न्यायालय में की जा सकती थी। मेयर्स कोर्ट की सहायता के लिए रिकॉर्डर की नियुक्ति की व्यवस्था की गई थी।रिकॉर्डर कंपनी का अंग्रेज अनुबंधित कर्मचारी होता था, जिसे कानूनों का ज्ञान आवश्यक। सर जॉन बिग्स को मेयर्स कोर्ट का प्रथम रिकॉर्डर नियुक्त किया गया था।

    मेयर्स कोर्ट द्वारा मामलों का निपटारा संक्षिप्त प्रक्रिया तथा साम्य, न्याय सद्विवेक के सिद्धान्तों के आधार पर किया जाता था। आपराधिक मामलों की सुनवाई में जूरी की सहायता ली जाती थी। ऐसा माना जाता है कि इस न्यायालय के निर्णय उच्च कोटि के नहीं होते थे।

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    निष्कर्ष


    सन् 1726 का राजपत्र भारतीय विधि एवं न्यायिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। इसके माध्यम से ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने भारत में न्यायिक प्रणाली को संगठित, सुनिश्चित और एकरूप स्वरूप प्रदान करने की दिशा में पहला ठोस प्रयास किया। इस चार्टर ने मद्रास, बंबई और कलकत्ता जैसे महत्वपूर्ण प्रेसिडेंसी नगरों में न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायी संस्थाओं को विकसित करने का प्रयास किया।

    • इस राजपत्र की प्रमुख उपलब्धियाँ इस प्रकार थीं:न्यायपालिका को संगठित कर स्वतंत्रता और निष्पक्षता प्रदान करने का प्रयास।
    • स्थानीय प्रशासन को सशक्त बनाने हेतु निगम और मेयर कोर्ट की स्थापना।
    • न्यायिक प्रक्रिया में अपील की स्पष्ट व्यवस्था तथा प्रिवी काउंसिल में अंतिम अपील का प्रावधान।
    • भारतीय विधि में आंग्ल विधि के समावेश का प्रारंभ।

    हालांकि, इस चार्टर में कई कमियाँ भी थीं। न्यायाधीशों का विधि ज्ञान सीमित था, न्यायपालिका और कार्यपालिका के पूर्ण पृथक्करण का अभाव था, और भारतीय सांस्कृतिक व सामाजिक संवेदनाओं की अनदेखी ने स्थानीय जनता में असंतोष उत्पन्न किया। इन दोषों के कारण यह राजपत्र लंबे समय तक प्रभावी नहीं रह सका, और 1753 में इसके स्थान पर नया चार्टर जारी करना पड़ा।
    फिर भी, सन् 1726 का राजपत्र ब्रिटिश भारत में न्यायिक संरचना की नींव रखने और विधि के क्षेत्र में सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर सिद्ध हुआ। इसने भारत में भविष्य की न्यायिक और विधायी व्यवस्थाओं के लिए आधार तैयार किया, जो आगे चलकर भारतीय कानूनी व्यवस्था का अभिन्न अंग बने।


    1726 का राजपत्र: FAQs

    प्रश्न 1: 1726 के राजपत्र का मुख्य उद्देश्य क्या था?


    उत्तर: 1726 का राजपत्र भारत के प्रेसीडेंसी नगरों (बंबई, मद्रास, और कलकत्ता) में एकरूप और सुनिश्चित न्याय व्यवस्था स्थापित करने के उद्देश्य से जारी किया गया था।

    प्रश्न 2: 1726 के राजपत्र के तहत प्रशासनिक प्रावधान क्या थे?


    उत्तर: राजपत्र के तहत हर प्रेसीडेंसी नगर में एक नगर निगम स्थापित किया गया, जिसमें एक मेयर और नौ एल्डरमैन शामिल थे। इनमें से सात एल्डरमैन का अंग्रेज होना अनिवार्य था।

    प्रश्न 3: मेयर का चुनाव कैसे होता था?


    उत्तर: मेयर का चुनाव एल्डरमैनों के समूह द्वारा किया जाता था, और निगम का स्वरूप प्रदान किया जाता था।

    प्रश्न 4: मेयर न्यायालय की स्थापना का उद्देश्य क्या था?


    उत्तर: मेयर न्यायालय का उद्देश्य सिविल, आपराधिक, और वसीयत संबंधी मामलों में न्यायिक सुनवाई के लिए एक समान और प्रभावी न्याय प्रणाली स्थापित करना था।

    प्रश्न 5: 1726 के राजपत्र में अपीलीय प्रावधान क्या थे?


    उत्तर: अपील की पहली सुनवाई सपरिषद राज्यपाल के न्यायालय में होती थी, और 1000 पैगौंडा से अधिक मूल्य के मामलों में प्रिवी काउंसिल में अपील करने का प्रावधान था।

    प्रश्न 6: इस राजपत्र के तहत न्यायाधीशों की नियुक्ति में क्या कमी थी?


    उत्तर: इस राजपत्र के तहत न्यायाधीश अक्सर व्यापारी होते थे, जिन्हें विधि का ज्ञान नहीं था, जिससे न्याय में बाधा उत्पन्न होती थी।

    प्रश्न 7: 1726 के राजपत्र ने न्यायपालिका को कार्यपालिका से कैसे अलग किया?


    उत्तर: इस राजपत्र ने न्यायपालिका को एक हद तक कार्यपालिका से पृथक कर इसे स्वतंत्र स्वरूप प्रदान किया, हालांकि यह पूर्णतः सफल नहीं हो सका।

    प्रश्न 8: शान्ति न्यायाधीशों की भूमिका क्या थी?


    उत्तर: शान्ति न्यायाधीशों को स्थानीय शांति व्यवस्था बनाए रखने और मामूली अपराधों की सुनवाई करने का कार्य सौंपा गया था। उनकी शक्तियां इंग्लैंड के शान्ति न्यायाधीशों के समान थीं।

    प्रश्न 9: जूरी प्रणाली का क्या महत्व था?


    उत्तर: आपराधिक मामलों में जूरी प्रणाली के माध्यम से निर्णय लिए जाते थे, जो न्याय प्रक्रिया को निष्पक्ष बनाने का एक प्रयास था।

    प्रश्न 10: 1726 के राजपत्र की क्या विशेषताएं थीं?


    उत्तर: इस राजपत्र ने भारत में आंग्ल विधि का प्रादुर्भाव किया, एकरूप न्याय प्रणाली स्थापित की, और स्थानीय समस्याओं के समाधान के लिए सपरिषद राज्यपाल को उपविधियाँ और अध्यादेश बनाने की शक्ति प्रदान की।

    प्रश्न 11: 1726 के राजपत्र की प्रमुख आलोचनाएं क्या थीं?


    उत्तर: इसके तहत न्यायाधीशों का विधि ज्ञान न होना, कार्यपालिका का न्यायपालिका पर प्रभाव, और भारतीयों पर आंग्ल विधि का लागू किया जाना इसकी प्रमुख आलोचनाएं थीं।

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